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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सुत्र १३
है वह वास्तविक नहीं है-झूठा है तो इसकी इस मान्यता को हटाने के लिए सूत्रकार द्वारा यह समझाया गया है कि यदि यह प्रमाण फलादि रूप व्यबहार वास्तविक न माना जावे तो यह तुम्हारा पक्ष "प्रमाण फलादि रूप वितथ है" किस आधार से यह सिद्ध हो सकता है ? और प्रमाण फल को बास्तविक मानने वालों का पक्ष किस आधार से खण्डित किया जा सकता है ? स्व-पक्ष की सिद्धि और पर पक्ष का निराकरण कहीं कहने मात्र से साधित या दूषित नहीं होता है । यदि ऐसा होने लगे तो फिर क्या है ? सब ही अपने-अपने पक्ष की सिद्धि वाले हो जायेंगे । यदि प्रमाण फल का व्यवहार अवास्तविक है, यह पक्ष प्रमाण से साबित किया जाता है तो इस साबित करने वाले प्रमाण में का पानी पड़ेगी भारमार्थिकता नहीं, नहीं तो फिर अपारमार्थिक प्रमाण से प्रमाणफल व्यवहार में अपारमार्थिकता कैसे सिद्ध की जा सकती है। इसलिए अपने मत का व्यामोह छोड़कर प्रमाणफल व्यवहार पारमार्थिक ही है ऐसा मानना चाहिए। जब प्रमाणफल बास्तबिक है यह बात स्वीकृत हो जाती है तो फिर यह कथन कि 'अनुमान और अनुमेय आदि रूप जितना भी व्यवहार है वह सब काल्पनिक है, वास्तविक नहीं है.' कैसे सुहावना माना जा सकता है।
प्रश्न-प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण और प्रमिनि ये लत्व चतुष्टय वस्तुतः अबास्तविक ही हैं क्योंकि प्रमाता-आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने वाला कोई प्रत्यक्षादि प्रमाण है ही नहीं। आत्मा इन्द्रियजन्य ज्ञान से जाना नहीं जाता है इसलिए उसका ग्राहक प्रत्यक्षा प्रमाण तो हो सकता नहीं है। यदि कहा जावे कि अहं प्रत्यय रूप मानस प्रत्यक्ष से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है सो बह कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि मैं गोरा है, मैं काला है इत्यादि रूप से अहं प्रत्यय तो शरीर के आश्रित भी होता है तथा यदि अहं प्रत्यय से आत्मा का अस्तित्व जाना जाता है तो अहं प्रत्यय सदा होते रहना चाहिए, कभी-कभी नहीं होना चाहिए। क्योंकि तुम्हारी मान्यतानुसार आत्मा तो सदा विद्यमान ही रहता है। अनुमान प्रमाण से भी आत्मा नहीं जानी जाती है क्योंकि आत्मा का कोई ऐसा अविनाभावो लिङ्ग नहीं है कि जिसके बल पर आत्मा ग्राहक अनुमान का उत्थान हो सके । आगमों में परस्पर ऐक्य मत नहीं है। कोई आगम पदार्थ को कोई रूप से प्रतिपादित करता है तो कोई आगम उसी पदार्थ को और दुसरे रूप से प्रतिपादित करता है । बाह्म प्रमेय पदार्थ का जब विचार किया जाता है तो उसकी भी सत्ता सिद्ध नहीं होती। केवल अनादिकालीन बासना के बल पर ही अर्धाभाव में भी स्वप्न ज्ञान की तरह अर्थ का ज्ञान होता है । स्वपरावभासी ज्ञान प्रमाण माना गया है । जब पदार्थ ही नहीं है तो वह किसका ग्राहक होगा। प्रमाण के अभाव से उसकी फलरूप जो प्रमिति है वह भी अब कसे सिद्ध हो सकेगी? इस तरह प्रमाता आदि तत्त्व चतुष्टय का अभाव मानने वाले माध्यमिक बौद्ध के सिद्धान्त को लक्ष्य में रखकर इस सूत्र का सूत्रकार मे निर्माण किया है। इसके द्वारा तत्त्व चतुष्टय की सिद्धि की जाकर प्रमाण और उसके फल का जो व्यवहार है उसे अवितथ-काल्पनिक नहीं कहकर पारमार्थिक कहा गया है। हेमचन्द्राचार्य ने इस विषय पर ऐसा कहा कहा है -
बिना प्रमाणं परवन्न शून्यः स्वपक्षसिद्ध: पदमश्नुबीत । कुप्येत् कृतान्तः स्पृशते प्रमाणमहो मुद्दष्टं त्वदसूयिदृष्टम् ।।
-स्याद्वाद मंजरी, १७ माध्यमिक ने शून्यवाद की स्थापना के लिए जो कहा है वह स्वयं शून्य रूप है या अशून्य रूप है । यदि शून्य रूप है तो ख़र विषाण की तरह वह शून्यता की सिद्धि नहीं कर सकता है और यदि अशून्य
१ बाह्यो न विद्यते कशिद, यथा बाल विल्प्यने । दासना लुठितं नित मभिाने प्रवर्तते ।। १ ।।