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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका :पंचम अध्याय, सूत्र १८-१९
स्वतः पारमार्थिक प्रत्यक्ष न हो वही पारमार्थिक प्रत्यक्षाभास कहलाता है । शान पाँच प्रकार के कहे गये हैं । इनमें मतिज्ञान और श्र तज्ञान ये दो ज्ञान सांच्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ये दो ज्ञान विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं. केवलज्ञान सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष है। यहाँ सूत्र में विकल शब्द से इसी अवधिज्ञान का ग्रहण हुआ है। जिस समय यह अवधिज्ञान तदाभासरूप होता है, उस समय इसका नाम विभंगज्ञान ऐसा हो जाता है। यह अवधिज्ञान विभङ्ग नाम को तभी धारण करता है कि जब यह मिथ्यादृष्टि की आत्मा में होता है। सम्यग्दृष्टि की आस्मा में होने पर ही इसका नाम अवधिज्ञान कहा गया है। मनःपर्ययज्ञान मिथ्यादृष्टि को प्राप्त न हो सकने के कारण वह तदाभासरूप नहीं कहा गया है । केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है- क्योंकि वह अपने आवरक ज्ञानावरण कर्म के सर्वथा नाश से ही उत्पन्न होता है । इस कारण इस ज्ञान में तो तदाभासरूप होने की आशंका ही नहीं हो सकती। हां, क्षायोपशमिक ज्ञानों में-मतिज्ञान-श्रु तज्ञानऔर अवधि ज्ञान-तदाभास रूप होने की संभावना मिथ्यादृष्टियों को प्राप्त हो जाने के कारण स्पष्ट है। जब ये मिथ्याष्टियों की आत्मा में होते हैं उस समय इनका नाम मत्यज्ञान, श्र ताज्ञान और विभंगज्ञान हो जाता है। मनःपर्ययज्ञान भी यद्यपि क्षायोपशमिक ज्ञान है पर वह जिस आत्मा में संयम की विशिष्ट शुद्धि होती है उसी को प्राप्त होता है। संयम की विशिष्ट शुद्धि सम्यग्दृष्टि को ही प्राप्त हो सकती है अन्य को नहीं, अतः उसका तदाभास नहीं होने के कारण नहीं कहा गया है। यह मध्यलोक असंख्याल द्वीप-समुद्रात्मक है। परन्तु शिवराजषि ने जो कि मिथ्यादृष्टि थे इस पृथिवी को-मध्यलोक को-सप्तद्वीप सप्त समुद्रात्मक जो कहा है वह विभङ्ग ज्ञान के ही प्रभाव से कहा है । अतः उनका वह ज्ञान विभङ्गज्ञान था ऐसा मानना चाहिए।
सत्र-अननुभूते वस्तुनि तदिति ज्ञानं स्मरणाभासम् ॥ १८ ।।
संस्कृत टोका-प्रत्यक्ष प्रमाणाभासं निरूप्य सम्प्रति सूत्रकारः परोक्षप्रमाणाभासं निरूपयितुम् । अननुभूते वस्तुनीत्यादिसूत्रमाह-स्मरणंतु प्रत्यक्षादिना प्रमाणेन गृहीतस्यैव वस्तुनो भवति नाननुभूतस्याऽति प्रसङ्गात् । अतोऽननुभूतेऽपि पदार्थे यत् तदित्याकारकं ज्ञानं जायते तत्स्मरणामासमवगन्तव्यम् यथाऽननुभूते तन्मुनिमण्डलमिति ।। १८ ॥
हिन्दी व्याख्या-प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से जिस पदार्थ का ग्रहण नहीं हुआ है ऐसे अननुभूत पदार्थ में जो "वह" इस प्रकार का ज्ञान होता है वही स्मरणाभास है। प्रत्यक्षादि प्रमाण से गृहीत पदार्थ का ही स्मरण होता है । अनभूत पदार्थ का नहीं ऐसा नियम है । यदि अननुभूत पदार्थ में स्मरण ज्ञान होने लगे तो जिस प्रकार उसने अननुभूत देवदत्त का स्मरण किया उसी समय उसे ब्रह्मदत्त का भी स्मरण होना चाहिये । अतः यह मानना चाहिये कि कालान्तर में जो पदार्थ का स्मरण ज्ञान होता है वह अनुभूत पदार्थ का ही होता है, अननुभूत का नहीं । फिर भी जो अननुभूत पदार्थ में "बह" ऐसा ज्ञान हो जाता है तो वही स्मरणाभास है जैसे कभी नहीं अनुभव में आए हुए मुनिमण्डल में "वह मुनिमण्डल' ऐसा ज्ञान स्मरणाभास रूप है ॥ १८ ॥
सूत्र-समानवस्तुनि तदेवेदमित्यादिज्ञानं प्रत्यभिज्ञानाभासम् ॥ १६ ।।
संस्कृत टीका-समान वस्तुनिसदृशे पदार्थे सदृशमिदमित्येवं वक्तव्ये तदपहाय "तदेवेदम्" इत्याकारकं यज्ज्ञानं भवति तत् प्रत्यभिज्ञानवदाभासमानत्वात् प्रत्यभिज्ञानाभासमुच्यते । एवमेव एकत्व
१ "मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च"--तत्त्वार्थ सूत्र, प्रथम अध्याय ।