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न्यायरन्न : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सूत्र ११
प्रसङ्ग से जो वीर्य का स्खलन हो जाता है वह क्यों होता है ? इससे यह प्रतीति होती है कि स्वप्नोपलब्ध पदार्थ से भी क्रिया का फल प्रदर्शित होता है ।
उत्तर-यह सब उस स्वप्नद्रष्टा की ही तीन कामुक भावना का फल है। जिस प्रकार कोई कामी जन किसो कामिनी का जागृत अवस्था में तन्मय होकर स्मरण करता है-उसका ध्यान करता है और मैं उसका सेवन कर रहा हूँ इस प्रकार अपने आपको मानता है ऐसी अवस्था में बह व्यक्ति उस कामिनी का पदार्थ के अभाव में भी जिस प्रकार अपनी उत्कट कामुक भावना के बल से वीर्य की स्खलना से युक्त हो जाता है उसी प्रकार स्वप्न में भी बास्तविक कामिनी की प्राप्ति के अभाव में भी तीब्र कामुकता की भावना से कल्पित कामिनी आदि के सङ्गम से स्खलित वीर्यबाला हो जाता है । यदि यह वात न हो तो फिर जगने पर सत्यकामिनी की तरह निकट में सोयी हुई उस कामिनी की प्राप्ति होनी चाहिये और जिसके साथ कामसेवन किया गया है उस स्त्री को भी उसका अनुभव हो जाना चाहिये, अथवा गर्भ रह जाना चाहिये या उसके द्वारा किये गये नखक्षत दन्त प्रहार आदि की भी सेवन करने वाले पुरुष में उपलब्धि होनी चाहिये । परन्तु यह कुछ भी नहीं होता अतः स्वप्नोपलब्ध पदार्थ असत्यार्थ है यह मानना चाहिए।
प्रश्न- यदि स्वप्नोपलब्ध पदार्थ असत्यार्थ हैं तो फिर जागृत अवस्था की तरह उसके निरीक्षण से जो देखने वाले के हर्षादिक होते हैं वे नहीं होना चाहिये ।
उत्तर- उन पदार्थों की उपलब्धि से वे हर्षादिक नहीं होते हैं किन्तु उन पदार्थों की उपलब्धि से होने वाले सुखाविको का जो अनुमपान रूशान होता है उससे वे हर्षादिक होते हैं इनका हम निषेध नहीं करते, हम तो सिर्फ इस बात का निषेध करते हैं कि उन पदार्थों की उपलब्धि से तृप्ति आदि क्रिया रूप फल प्राप्त नहीं होता है।
इस प्रकार से वक्ष और मन का सम्बन्ध अपने विषयभूत पदार्थों के साथ नहीं होता है इस कारण "इन्द्रियार्थ सम्बन्धः सन्निकर्षः" यह सन्निकर्ष का लक्षण अव्याप्ति दोष से दुष्ट हो जाता हैं । अतः इसमें मुख्य रूप से प्रमाणता नहीं आती है, उपचार से भले ही प्रमाणता इस में रहे इसका हम निषेध नहीं करते हैं पर मुख्य रूप से तो प्रमाणता स्वपर का निश्चय करने में साधकतम बने हुए प्रमाणरूप, ज्ञान में ही आती है । यहाँ "प्रमाणस्यब" में जो एवकार पद आया है अन्ययोगव्यवच्छेदक है । इसका फल पूर्वोक्त रूप से जिस प्रकार से प्रकट किया गया है, उसी प्रकार से निर्विकल्पादिक जो ज्ञान हैं उनमें भी स्वपर निश्चयात्मक क्रिया के प्रति साधकतमता नहीं है, ऐसा जान लेना चाहिये । विस्तार हो जाने के भय से अब और अधिक नहीं लिखता हूँ।
प्रमाण रूप ज्ञान में स्वपर-व्यवसायात्मक क्रिया के प्रति करणता इसलिए आती है कि वह उसमें साधकतम होता है जैसे "कोई व्यक्ति कुठार से काष्ठ को छेदता है" यहां पर छेदनरूप क्रिया में साधकतम
से करणता कुठार में आती है उस व्यक्ति में नहीं क्योंकि वह छेदनरूप क्रिया कूठार के उत्पतन निःपतन क्रिया के अव्यवहित काल में ही निष्पन्न होती हुई देखने में आती है। इसी तरह प्रमाणरूप ज्ञान के द्वारा ही अज्ञाननिवृत्तिरूप क्रिया निष्पन्न होती हुई प्रतीत होती है अतः वही उसमें साधकतम कहा गया है, अन्य प्रमाता आदि नहीं । अवशिष्ट टीका का अर्थ सुखोन्नेय है अतः नहीं लिखा है ।।१०।।
सूत्र-तत्तु प्रमाणनिष्पाद्यत्वाकार्यम् ॥ ११ ।। संस्कृत टीका-प्रमाणनिष्पाद्यत्वात्-तत्-साक्षात् फलम् अशाननिवृत्तिरूपं साध्यम्-प्रमाणकार्यम्,