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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टोका : पंचम अध्याय, सूत्र १०
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तब उसमें एक प्रकार का हर्ष होता है और जब किसी इन्ट के वियोग का स्मरण करता है तो उससे उसे एक प्रकार की ठेस पहुँचती है। इन दोनों बातों की समर्थक देह में उस समय होने वाली कृशता और मुख की प्रफुल्लता आदि हैं । बाह्य पदार्थों का मन पर अच्छे-बुरे रूप में असर पड़ता ही है यही उसमें उन द्वारा उपपात और अनुग्रह है । इस पर उत्तरकार का यह कहना है कि द्रव्यमन में जो कि स्वयं अविचारक है--और अचेतन है उस पर बाह्य पदार्थ के इष्टानिष्ट रूप विचार का कुछ भी असर नहीं पड़ना । क्योंकि विचारक तो जीव है । जीव हो द्रव्यमन की सहायता से मिष्ट पदाधी का विचार करता है । पदार्थ में इष्ट अनिष्ट यह मान्यता द्रव्यमन की सहायता से ही जीव में उद्भूत होती है । पदार्थ न स्वयं 5 और न अनिष्ट रूप है। इष्ट पुद्गल परमाणुओं से रचित द्रव्य मन द्वारा जिन पदार्थों का आत्मा विचार करता है वे उसे इष्ट रूप से और जिनका अनिष्ट पुद्गल परमाणुओं से रचित मन द्वारा विचार करता है वे उसे अनिष्ट प्रतीत होते हैं, अतः जोव में इप्ट अनिष्ट कल्पना का जनक होने से दव्यमन ही खाये हाये इष्ट और अनिष्ट आहार की तरह जीवाधिष्ठित देह में कृपाता और प्रफुल्लता आदि का कारण होता है । विचारों का असर आत्मा में ही होता है । पुद्गल द्वारा जीवों के उपकारादिक के विषय में श्री उमास्वाति का यह सूत्र देखना चाहिये । अत: द्रव्यमन से जीव में ही उपधान और अनुग्रह होते हैं: चिन्त्यमान बिषय से मन में नहीं। फिर भी ये मन में होते हैं ऐसी मान्यता का कारण मन को जीव से कथंचित अभिन्नता है।
प्रश्न-द्रव्यमन पौद्गलक है इसमें क्या प्रमाण है ?
उत्तर-द्रव्यमन गौद्गलिक है इसमें अनुमान प्रमाण है । अनुमान प्रमाण से हम यह जानते हैं कि द्रव्यमन पौद्गलिक है । जैसे अग्नि के स्पर्श से हुआ फोड़ा अग्नि की दाहात्मक शक्ति का अनुमाएक होता है उसी प्रकार हण्ट और अनिष्ट वस्तु के चिन्तवन करने पर होने वाली वदन की प्रसन्नता और देह की दुर्बलता आदि रूप अनुग्रह और उपघात द्रव्यमन में पौद्गलिकत्व की सिद्धि करते हैं । द्रव्यमन यदि पौद्गलिक न होता तो जिस प्रकार अपौद्गलिक आकाश आदि से उपघात आदि नहीं हो सकते हैं उसी प्रकार संज्ञी प्राणियों को भी इष्टानिष्ट वस्तु के विचार करने पर जो बदन में प्रसन्नता और देह की दुर्बलता आदि रूप अनुग्रह और उपघात प्रतीत होते हैं । वे नहीं होना चाहिये परन्तु होते तो हैं । इसमे यह अनुमित होता है कि द्रव्यमन पौदगलिक है । अनुग्रह और उपघात आदि रूप कार्य विना द्रव्य मन में पौद्गलिकता हुए कथमपि सुघटित नहीं हो सकते हैं।
प्रश्न-द्रव्य मन के निमित्त से उपधात और अनुग्रह रूप कार्य जीवों के होते हैं, इसलिए द्रव्यमन पौद्गलिक है, यह भी एक विलक्षण बात है । क्योंकि ये कार्य तो विधारित विषय से ही जीवों में देखने में आते हैं।
उत्तर---ऐसी बात नहीं है । यदि चिन्तनीय विषयों से उपघात और अनुग्रह आदि कार्य माने जावें तो फिर इसी तरह जल, अग्नि और भोजन आदि का विचार करने पर भी क्लेद, दाह और बुभुक्षा की तृप्ति हो जानी चाहिए, परन्तु होती नहीं है । इससे ज्ञात होता है कि विचारित पदार्थों द्वारा उपघात और अनुग्रह कुछ भी नहीं होते हैं इन पदार्थों के विचारने में निमित्त रूप हुए मन से ही ऐसा होता है।
प्रश्न—यह कहना कि इनकी तरह क्लेदादिक हो जाने चाहिए । सो ऐसा कहना तो उस समय ग्योभास्पद माना जा सकता था कि जब हम उपघातादिक का कारण पदार्थों को मानते, किन्तु हमारा तो १. सुख-दुःख जीवित मरणोपग्रहापच (नत्यार्थ सू० अध्याय ५) २. स: जीवस्य भवन्तपि चिन्त्यमान विषयात् मनसः किल परो मन्यते तस्य जीवात्कथंचिदव्यतिरिक्तत्वात्
(विशेष भा० पृ १३१)