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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका पंचम अध्याय, सूत्र १०
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चक्षु इन्द्रिय प्राप्त होकर बताती है उसे ही हम जानते हैं, अन्य को नहीं। कारण कि उसे उसने प्राप्त होकर प्रकाशित नहीं किया है ।
उत्तर - यह मान्यता ठीक नहीं है क्योंकि चक्षु इन्द्रिय में इतनी योग्यता नहीं है कि वह एक ही साथ समस्त पदार्थों का प्रकाशन कर सके क्योकिं चाक्षुषप्रत्यक्ष में उतनी ही योग्यता है कि वह सम्बद्ध और वर्तमान अपने योग्य प्रतिनियत पदार्थों को ही जानता है अन्य को नहीं । कारण कि ऐसी उसमें शक्ति नहीं है इसका भी कारण यही है कि उसके प्रतिबन्धक रोधक ज्ञानावरणीयादि कर्मों का सद्भाव है अतः चक्ष, इन्द्रिय अप्राप्त अर्थ की प्रकाशक है ऐसी मान्यता हो युक्तियुक्त है ।
मन में अप्राप्यकारिता का कथन
इसी प्रकार से मन भी अप्राप्यकारी है । द्रव्यमन और भावमन के भेद से मन दो प्रकार का कहा गया है। भावमन जीव स्वरूप और द्रव्यमन मनोवर्गणाओं से निष्पन्न होने के कारण पौद्गलिक कहा गया है । चक्ष इन्द्रिय में जिस प्रकार पदार्थकृत उपघात और अनुग्रह नहीं होते हैं उसी प्रकार मन में भी पदार्थकृत उपघात और अनुग्रह सिद्ध नहीं होते हैं । भावमन का काम विचारना है और इस विचार में सहायता पहुँचाना द्रव्यमन का काम है ।
कुछ
प्रश्न - भावमन तो जीव स्वरूप है अतः उसका देह से बाहर निकलना अशक्य है इस पर हमारा भी नहीं कहना है, परन्तु द्रव्यमन के जो कि पौद्गलिक अचेतन है उसके बाहर निकलने में कोई आपत्ति नहीं है । यह ठीक है कि उसका काम स्वयं विचारने का नहीं है यह तो भावमन का ही है परन्तु जिस प्रकार प्रदीपादिक पदार्थों को निमित्त कर हम घटपटादि पदार्थों को जानते हैं । उसी प्रकार द्रव्य मन की सहायता से जीव पदार्थों को जानता है । निष्कर्ष कहने का यही है कि जिस प्रकार प्रदीपादिक की प्रभा से सम्बन्धित पदार्थों को जीव जानता है उसी प्रकार द्रव्यमम भी देह से बाहर निकलकर ज्ञय पदार्थों से सम्बन्ध करता है । पश्चात् जीव उससे सम्बन्धित हुए पदार्थों को जानता है । अतः इस प्रकार की ज्ञप्ति में द्रव्यमन में करणता आने से प्राप्यकारिता सिद्ध होती है ।" लोक में यही बात चरितार्थ होती है कि "अत्र मे मनोगतम्" अमुक जगह मेरा मन गया !
उत्तर- इस कथन से द्रव्यमन में प्राप्यकारिता सिद्ध नहीं होती है । यह तो हम भी स्वीकार करते हैं कि पदार्थों को जानने में जीव के लिये द्रव्यमन सहायक होता है। इसकी सहायता के बिना पदार्थों का ज्ञान हम तुमको नहीं हो सकता है । इससे यह बात कैसे सिद्ध हुई कि वह प्राप्यकारी है। करण दो प्रकार के होते हैं - एक अन्तःकरण और दूसरा बाह्यकरण । आत्मा को पदार्थों के जानने में इन्द्रिय और मन अभ्यन्तर - अन्तःकरण हैं। प्रदीप आदि पदार्थ आदि वाह्यकरण हैं । बाह्यकरणों की समता अन्तःकरण में नहीं हो सकती है। बाह्यकरण आत्मा से सर्वथा भिन्न है । आत्मा उनकी सहायता से घटपट आदि पदार्थों को जानती है। तब कि मन ऐसा नहीं है वह तो शरीर के भीतर रहा हुआ है । अतः शरीर के भीतर रहे हुए ही इसकी सहायता से आत्मा हम तुम सब पदार्थों को जानते हैं । जिस प्रकार अन्तःकरण स्पर्शनादि इन्द्रियाँ हैं आत्मा शरीर के भीतर रही हुई इनकी सहायता से ही पदार्थों को जानती है । अतः यह कहना कि जिस प्रकार प्रदीपादिकों की सहायता लेकर पदार्थों को जीब जानता है उसी प्रकार मन की सहायता लेकर जीव पदार्थों को जानता है अतः उसमें करणता आने से द्रव्य मन में प्राप्य - कारिता सिद्ध होती है सो यह प्राप्यकारिता की सिद्धि कराने में कोई महत्व की बात नहीं है। इससे तो
१. बहिर्निर्गतेन मनसा प्राप्य विषयं ज्ञानाति जीवः करणत्वात्
प्रदीप प्रभयेव ।
( वि० आ० भा० १३० )