Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 238
________________ १३८ न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सुत्र १० यही सिद्ध होता है कि जिस प्रकार पदार्थो के प्रकाश करने में प्रदीपादिकों में करणता-सहायकता आती है। उसी प्रकार घट पटादिक पदार्थों को प्रकट कराने में मन-द्रव्यमन में करणला आती है जो हमें अभीष्ट ही है । "मनसा अहं जानामि" मैं-आत्मा--मन से पदार्थों को जानता हूँ | प्रश्न-आपने जो अभी ऐसा कहा कि चक्ष इन्द्रिय की तरह मन में ज्ञय पदार्थों को जानते समय उनके द्वारा बहाँ उपधात और अनुग्रह नहीं होते सो यह बात प्रत्यक्ष का अपलाप करने जैसी हैठीक प्रतीत नहीं होता । चक्षु में जयकृत उपचात अनुग्रह न हो उसमें हमें कोई बिबाद नहीं, परन्तु मन में इन्हें नहीं मानना यह एक आश्चर्य जैसी बात है । यह तो अनुभव में आता है कि जब इष्ट पदार्थ का स समय मन में उन पदार्थों के उपकारादिक के विचार से एक प्रकार की बेचनी बदती है। इसी का नाम मन का उपघात है और यह उसमें बाह्य पदार्थों द्वारा होता हुआ प्रतीत होता है । मन में इस बेचैनी के अनुमापक उसके चिह्न स्वरूप देहाथित कृशता आदि है । इसी प्रकार इष्ट पदार्थों के संयोग से मन में एक प्रकार का हर्षोल्लास होता है । यह मन का बाह्य पदार्थकृत अनुग्रह है। मन में हर्षोल्लास है यह बात भी उस समय में मुख पर छायी हुई प्रसन्नता आदि से लक्षित हो जाती है अतः मन में बाह्य पदार्थों द्वारा उपघात और अनुग्रह होता है यह बात प्रसिव ही है फिर आप इसका अपलाप कैसे करते हैं? उत्तर-यदि बाह्य पदार्थों द्वारा द्रव्य मन में उपघात और अनुग्रह होते हुए प्रसिद्ध होते और हम उन्हें न मानते तो यह कहना शोभित होता कि आप इसका अपलाफ कैसे करते हैं । परन्तु इन दोनों की तो वहाँ गन्ध तक भी नहीं पहुंचती है। जो तुमने पूर्वोक्त रीति से मन में उपघात और अनुग्रह होने की बात कही वह मन में न होकर उल्टी उसके द्वारा आत्मा में ही प्रसिद्ध होती है । यथा-हृदय देश में निरुद्ध बायु जैसे देह में दौर्बल्य आदि लक्षणों को उत्पन्न करती हुई जीवों को कष्टकारक होती है और दवा आदि जैसे ज्वरादिक का उपशमन करती हुई जीवों में प्रसन्नता का हेतु होती है इसी प्रकार द्वन्य मन से परिणत जो इष्ट और अनिष्ट पुद्गल हैं वे पदार्थों को इष्ट और अनिष्ट रूप से विचार करने में जीब के लिये निमित्त हों उसमें हर्ष और विषाद के कारण बनकर उसके अनुग्राहक और उपघातक होते हैं । इससे यों भी समझ सकते हैं-जिस प्रकार वृद्ध पुरुष लकड़ी का सहारा पाकर चलता है-.-यदि लकड़ी उसे चलने में अच्छी तरह से सहायक होती है तो वही उसके लिए आनन्द का कारण बन जाती है और यदि वह चलने में ठीक-ठीक मदद नहीं पहुँचाती है तो वही उसे कष्ट कारक हो जाती है। इसी प्रकार मन भी विचारक आत्मा को दृष्ट रूप से पदार्थों के विचार करने में निमित्त रूप होकर जब मदद पहुँ। चाता है तब वह आत्मा उस इष्टरूप परिणत मन द्वारा विचार करने वाला होने से उस पदार्थ को इष्ट मानकर हर्षित होता है और अनिष्ट रूप परिणत मन द्वारा जब वह पदार्थों का विचार करता है तब वह अनिष्टरूप परिणत मन द्वारा विचार करने वाला होने से उन पदार्थों को अनिष्ट कल्पित कर दुःखी होता है । अतः यह जीव को विचार करने में निमित्त-सहायक है, स्वयं विचारक नहीं । चिन्त्यमान विषय के विचार से उपचात या अनुग्रह जो कुछ भी होता है वह इष्टानिष्ट विषय को विचार करने वाले आत्मा को ही होता है द्रव्य' मन को नहीं क्योंकि वह अचेतन होने से अविचारक है-जैसे अचेतन पृष्ट अनिष्ट आहार के सेवन करने से प्राणियों के शरीर की पुष्टि और अपुष्टि प्रत्यक्ष में ज्ञात होती है । इसी प्रकार अचेतन पौद्गलिक द्रव्य मन भी इष्ट और अनिष्ट का विचार करने वाले जोव के शरीर की हानि और पुष्टि का कारण होता है । कहने का तात्पर्य यह है-शङ्काकार ने द्रव्यमान में बाह्य पदार्थों द्वारा उपघात और अनुग्रह होते हैं इस बात की पुष्टि यों की कि जब मन इष्ट पदार्थ का विचार करता है

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