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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका पंचम अध्याय, सूत्र १०
हैं तभी जाकर ये अपने-अपने विषय को जानती हैं इसी प्रकार चक्षु और मन को भी जब अपने-अपने विषय का ज्ञाता माना गया है तो इनका भी सम्बन्ध पदार्थों के साथ क्यों नहीं माना जायेगा ? जब यह सिद्धान्त स्थापित हो चुका है कि इन्द्रियाँ बिना अपने विषय के साथ सम्बन्धित हुए पदार्थ को नहीं जानती हैं तो फिर आप इस विषय में मीन मेख लगाने वाले कौन होते हैं ?
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उत्तर- ऐसा आप किस आधार को लेकर कहते हैं कि इन्द्रियाँ अपने विषय को पदार्थों के साथ सम्बन्धित होकर ही उन पदार्थों को जानती हैं, यह सिद्धान्त स्थापित हो चुका है। यदि यही सिद्धान्त स्थापित हो जाता तो हम भी उसे स्वीकार कर लेते। कामल रोग वाला यदि सफेद पदार्थ को पीला देखता है तो इसका तात्पर्य यह नहीं होता है कि सभी को उसकी बात मान लेनी चाहिए। स्पर्शन, रसना आदि इन्द्रियाँ प्राप्यकारी मानी गई है इसलिए ये अपने-अपने विषयभूत पदार्थों के साथ भिड़कर पदार्थ का ज्ञान कराती हैं। चक्षु और मन प्राप्यकारी नहीं माने गये हैं अतः ये इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों के साथ सम्बन्धित नहीं होती हैं। यदि चक्षु इन्द्रिय को प्राप्यकारी माना जावे तो शाखा और उसकी ओट रहे हुए चन्द्रमा का जो एक साथ ग्रहण होता है वह नहीं होना चाहिए |
प्रश्न - ऐसा कौन कहता है कि एक साथ इन दोनों का ग्रहण होता है। वह तो क्रमशः ही
होता है ।
उत्तर- तो फिर उस ग्रहण में कालक्रम का अनुभव होना चाहिये परन्तु नहीं होता । अतः एक साथ ही इन दोनों का ग्रहण होता है ऐसा ही मानना चाहिए।
प्रश्न- अति सूक्ष्म होने से वहाँ कालक्रम का अनुभव नहीं होता है। अतः शाखा और उसकी ओट में रहे हुए चन्द्र का ग्रहण क्रमशः होता हुआ भी युगपत् हुआ है ऐसा भ्रम से ज्ञात होता है ।
उत्तर- ऐसा नहीं है । क्योंकि प्राप्यकारी इन्द्रियों में विषयकृत उपघात और अनुग्रह अवश्य ज्ञात होता है । जैसे कठोर कम्बल आदि के स्पर्श से स्पर्शन इन्द्रिय में, कडवी औषधि आदि के स्वाद से रसना इन्द्रिय में, अपवित्र दुर्गंधित पदार्थ के सूंघने से घाण इन्द्रिय में और भेरी आदि के शब्दों के श्रवण से कर्ण इन्द्रिय में गढ़ना आदि रूप उपघात तथा चन्दन एवं अङ्गना आदि पदार्थों के स्पर्श से स्पर्शन इन्द्रिय में, शक्कर आदि के स्वाद से रसना इन्द्रिय में, सुगन्ध के घने से घ्राण इन्द्रिय में, मधुर शब्दों के श्रवण से कर्ण इन्द्रिय में, शीतलता आदि रूप अनुग्रह प्रत्येक जन को स्पष्ट रूप से प्रतीत होते हैं। इस प्रकार से ये उपघात और अनुग्रह नेत्र इन्द्रिय में अपने विषय द्वारा होते हुए अनुभव में नहीं आते, करोंत आदि के देखने से आँखों में न तो चिरना आदि रूप उपघात प्रतीत होता और न चन्दन या अगुरु आदि शीतलतादायक पदार्थों के दर्शन मात्र से उनमें शीतलता आदि रूप अनुग्रह मालूम होता है। अतः यह कपोल कल्पित चक्षु इन्द्रिय की प्राप्यकारिता को अवश्य त्याग कर देना चाहिए।
प्रश्न - इस प्रकार की मान्यता से कि विषयकृत उपघात और अनुग्रह वक्ष इन्द्रिय में प्रतीत नहीं होते हैं अतः वह अप्राप्त अर्थ को ही जानती है 'श्रोत्र और प्राण' इन्द्रिय में भी यही बात स्पष्ट अनुभावित होती है । ये भी अपने-अपने विषय को इस प्रकार से प्राप्त होकर नहीं जनाती हैं तो फिर इनमें भी प्राप्यकारिता को त्याग देना चाहिये ।
उत्तर-- बात तो ठीक है, कर्ण इन्द्रिय और प्राण इन्द्रिय अपने-अपने विषय को विषय देश में जाकर नहीं जनाती हैं फिर भी जो इनके द्वारा इनका प्रहण होता है उसका कारण यह है कि शब्द और