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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सूत्र है
अज्ञाननिवृत्ति रूप साक्षात्फल और केवल समस्त पदार्थों में उपेक्षाबुद्धि रूप तथा हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि रूप परम्परा फल प्राप्त हुआ करता है इससे वह प्रमाता आत्मा समस्त पदार्थों में केवल उपेक्षा बुद्धि को, या हेय पदार्थों में हान बुद्धि को, उपादेय पदार्थों में उपादेय बुद्धि को और उपेक्षणीय पदार्थों में उपेक्षा बुद्धि को धारण करता है। सो ये सब बुद्धिरूप पर्यायें उसी एक आत्म द्रव्य की ही हैं । अतः इस अपेक्षावाद की दृष्टि से ये सन्न परिणामरूप पर्यायें परस्पर में लक्षण भेद की अपेक्षा भिन्न-भिन्न होने पर भी एक आत्मद्रदय में अपने तादात्म्य सम्बन्ध को लेकर अभिन्न ही हैं, अतः प्रमाण और फल में कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता आ जाती है । यह तो अनुभव सिद्ध है कि जो प्रमाता प्रत्यक्षादि प्रमाण के द्वारा जिस किसी वस्तु का निश्चय करता है यदि वह वस्तु हेय है तो उसे वह छोड़ देता है, यदि वह उपादेय है तो उसे ग्रहण कर लेता है और यदि वह उपेक्षणीय है तो उसे उपेक्षित कर देता है इस तरह का यह फल एक ही आत्मा में होता है भिन्न-भिन्न आत्मा में नहीं । अतः ज्ञान और ज्ञान का फल एक आत्मद्रव्य में हो जायमान होने के कारण उस एक आत्मद्रव्य की अपेक्षा परस्पर में अभिन्न कहा गया है और अपने-अपने लक्षण भेद की अपेक्षा भिन्न-भिन्न भी कहा गया है ॥ ८ ॥
सूत्र-अन्यथा स्वेतर प्रमाण फल व्यवस्था न स्यात् ।। ६ ।।
संस्कृत टीका-- प्रमाणात्प्रमाणफलं स्याद्भिन्न स्याद्भिम्नमिति पूर्वोक्त पद्धत्या प्रतिपादितेऽपि यदि कश्चित्स्वमतव्यामोहादिना व्यवस्था न स्वीकुर्यात् तहि तन्मतानुसारेण “इमे प्रमाणफले स्वकोये इमे च परकीये" ईदृशी या तयो व्यवस्था दृष्टिपथमायाति सा कथमधुनाऽऽगच्छेत् सर्वथा तस्या भिन्नत्वे भव्यत्वाभावात् । तथाहि यदि जिनदत्तात्मनि विद्यमानयोः प्रमाणफलयोः प्रमातुजिनदत्तात्मनः सकाशादेकान्ततो भिन्नत्वं स्यात्तदा तयोर्यथा देवदत्तादितो भिन्नत्वं तथैव जिनदत्तादपि भिन्नत्वं समानमेवेति जिनदतात्मनि विद्यमाने प्रमाणफले देवदत्तस्यापि कथं न स्याताम् । एवं देवदत्तात्मनि विद्यमाने प्रमाणफले जिनदत्तस्यापि कथं न स्याताम् । उभयत्रापि प्रमाणफलयोभिन्नत्वाविशेषात् । तस्मात्प्रमाणफलयोः स्वकीय परकीय प्रमाणफल व्यवस्था प्रतिपत्तये तयोरेक प्रमातृरूपात्मद्रव्य तादात्म्येनावस्थितिरवश्यमभ्युपगन्तव्येति ।। ६ ।।
अर्थ--जैसा कि अनेकान्त सिद्धान्त की दृष्टि से प्रमाण्य और प्रमाण के फल में उसकी भिन्नता और अभिन्नता को लेकर मौलिक विचार चन्द्रप्रभा की तरह अन्तःकरण में प्रकाशित होता हुआ प्रकट किया गया है उसे यदि स्वीकार न किया जावे तो फिर स्वकीय और परकीय प्रमाण और उमके फल की व्यवस्था ही नहीं बन सकती है ॥६॥
हिन्दी व्याख्या-युक्तिपूर्वक यह स्पष्ट रूप से समर्थित हो चुका है कि प्रमाण और उसका फल आपस में किसी अपेक्षा से भिन्न भी है और किसी अपेक्षा से अभिन्न भी है परन्तु फिर भी यदि कोई इस प्रतिपादित हुई पद्धति को अपने मत के व्यामोह से स्वीकार न करे तो यह उसके ऊपर सबसे अधिक वज के प्रहार जैसी आपत्ति आ जाती है कि "ये मेरे प्रमाण और उसके फल हैं, ये पर के प्रमाण और उसके फल हैं" ऐसी व्यवस्था उसके मन्तव्यानुसार नहीं बन सकती है। ऐसी व्यवस्था इन दोनों की होती नहीं है ऐसा तो कहा नहीं जा सकता है क्योंकि ऐसा कथन तो प्रत्यक्ष का अपलाप करने जैसा है । प्रमाण और उसके फल के सम्बन्ध में स्वेतर व्यवस्था तो प्रत्यक्ष से ही प्रतीति कोटि में आती रहती है। फिर ऐसा कसे माना जा सकता है कि प्रमाण और उसके फल के सम्बन्ध में यह ब्यबस्था सावित नहीं होती है। हाँ, जो प्रमाण के फल को सर्वथा आपस में भिन्न ही मानते हैं उनके ही मन्तव्यानुसार इस सम्बन्ध में ऐसी आपत्ति आ सकती है कि जिनदत्त की आत्मा में विद्यमान प्रमाण और उसके फल में यदि उससे एकान्ततः भिन्नता है तो उसी प्रकार से वह भिन्नता उन दोनों की देवदत्त आदि से भी है तो फिर इस स्थिति में यह कैसे माना जा सकता है कि ये प्रमाण और फल जिनदत्त की आत्मा के हैं, देवदत्त की आत्मा