________________
न्यापरत्न : सायरत्नावली टोका : चतुर्य अध्याय. सूत्र ११ उत्तर-ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि ऐसे कथन में बहुत बड़ा बखेड़ा खड़ा हो जाता है। यदि स्बसस्व-घटादि का सत्व पर---पटादि के असत्त्वरूप मान लिया जाय तो फिर घट में जिस प्रकार स्वचतुष्टय की अपेक्षा सत्त्व कहा गया है उसी प्रकार पर-चतुष्टय की अपेक्षा भी उसमें सत्त्व के आने का प्रसंग प्राप्त होगा । अथवा पट को अपेक्षा जो घट में असत्व धर्म है वही घट का स्व चतुष्टय की अपेक्षा सत्त्व है मदि ऐसा माना जावे तो घट में स्वचतुष्टय की अपेक्षा से भी असत्त्वधर्म के मानने का प्रसत दुनिवार हो जावेगा । अतः घट में सत्त्वधर्म स्वतन्त्र है औः असत्व धर्म भी स्वतन्त्र है। इसकी स्वतन्त्र सत्ता में शेष भंगों के वस्तु मैं सद्भाव सिद्ध होने में फिर कोई बाधा नहीं आती है। इस तरह से इस सूत्र की अच्छी तरह सङ्गति स्थापित कर अब यह प्रकट किया जाता है कि इस सूत्र में जो पद रखे गये हैं उनकी सार्थकता किस प्रकार से हुई है।
सूत्र में जो "एकत्र" पद रक्खा गया है वह “एक वस्तु में" इस अर्थ को प्रकट करता है। इससे यह बात बोधित की गई है कि एक वस्तु के ही आश्रित एक धर्म के विधि-प्रतिषेध को लेकर यह सप्त भंगी बनती है । नाना बस्तु के आश्रित विधि प्रतिषेध को लेकर ऐसी सप्तमङ्गो नहीं बनती है। अतः नाना वस्तु के विधि-प्रतिषेध से जायमान उस सप्तभनी की व्यवच्छित्ति के लिये यहाँ “एकत्र" पद रक्खा गया है । "अबिरोधेन" ऐसा जो पद सूत्र में रखा गया है वह प्रत्यक्षादि प्रमाण से विरुद्ध जो सत्-असत् आदि की विधि-प्रतिषेध रूप अन्य तीथिक जनों की एकान्त मान्यताएँ हैं उन्हें हटाने के लिये रक्खा गया है। सूत्र में कथञ्चित्पद का बोधक स्याप्ताद है। सप्तभंगी पद से यह समझाया गया है कि एक वस्त्वाश्रित प्रत्येक धर्म के विधि-निषेध की अपेक्षा से सात ही भङ्ग होते हैं, ६ या ८ भंग नहीं होते हैं।
सूत्र-स्यात्सदेव सर्वमिति प्राधान्येन विधिविघक्षया प्रथमो भङ्गः ॥११।।
संस्कृत टीका-पूर्वोक्तानामेव सप्तभङ्गानां स्वरूपाणि निरूपयितु स्यात्सदेव सर्वमित्यादि सूत्रमाह--
स्यात्पदमत्रानेकान्तबोधक विभक्ति प्रतिरूपकमव्ययम् । स्यात्पद निरपेक्ष यदि कश्मिदेवं ब्रूयात् सन्ने व घटस्तदा स्वरूपेण यथा घटे सत्त्वं वर्तते तथैव पररूपेणापि तत्र सत्त्वमापतितं स्यात् अतः परहपेण तत्र सत्त्वं न स्यादित्यवबोधनार्थ स्यात्पदमुक्त। तथा च स्यात्कथञ्चित्स्त्र द्रव्य क्षेत्र काल-भावरेव घटोऽस्ति न तु पटादि द्रव्य-क्षेत्रादिभिरिति । घटस्य द्रव्यं मृत्तिका, क्षत्रं यत्र संस्थितोऽस्ति, काल: यस्मिन् काले स वर्तमानोऽस्ति, भावो येन वर्णादिना सः समन्वितोऽस्ति, एवं घटो दृष्यत्वेनैव पार्थिवत्वादिनवास्तिसदात्मको वर्तते, नतु जलत्वादिना, क्षेत्रतः मरुभूमितः एवं न तु गुर्जरदेशतः, कालतो वर्षाकालेनैव नत् वासस्तिकत्येन, भावतः पुनर्नीलत्वेनैव नतु रक्तत्वेनास्ति इत्यर्थोलभ्यते । परद्रव्यादिभिर्घटेऽस्तित्वप्रसक्तिवारणार्थ यया स्यात्पदमुक्त तथैव स्वद्रव्यादिभिरपि नास्तित्ववारणार्थमेवकारपदमुक्तमिति ।
सूत्रार्थ-सप्तभंगी के भङ्गों में से प्रथम भङ्ग को प्रकट करने के लिए यह सूत्र कहा गया है। सभा च-किसी अपेक्षा समस्स जीवादिक वस्तु सत्स्वरूप ही है । इस प्रकार का यह प्रधान रूप से विधि की विवक्षा करके समस्त वस्तु में अस्तित्व का कथन करने वाला प्रथम भङ्ग है ।।
हिन्दी व्याख्या-स्यात् यह पद विभक्ति प्रतिरूपक अव्यय है । अस् धातु के विधिलिङ्ग का प्रथम पुरुष का एकवचन का रूप नहीं है। यह स्यावाद सिद्धान्त के प्राणभूत अनेकान्त का बोधक है।