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पंचम अध्याय
सूत्र--प्रमाण साध्यमज्ञाननिवृत्त्यादिकं तत्फलम् ।। १ ।।
संस्कृत टीका-प्रमाणस्य स्वरूपं संख्या विषयं च निरूप्याधुना तत्फलं निरूपयितु माह-प्रमाण साध्यमित्यादि-प्रमाणेन प्रत्यक्ष परोक्ष रूपेण विविधेन प्रमाणेन यत् साध्यते-संपाद्यते स्वस्वविषयाज्ञान निवृत्त्यादिक तत् प्रमाण साध्यमज्ञान निवृत्त्यादिकं तस्य प्रमाणस्य फलं—प्रयोजनमवगन्तव्यम् यदा हि ज्ञानं घटपटादिकं विषयी करोति तदा तद्विषयकावरण भङ्गात् अज्ञान निवृत्तिर्भवति, इदमेव ज्ञानस्य साक्षात्फलम् ॥१॥
अर्थ-अज्ञाननिवृत्ति आदि रूप फल वाला प्रमाण होता है।
हिन्दी व्याख्या-प्रथम अध्याय से लेकर चतुर्थ अध्याय तक इस ग्रन्थ में सूत्रकार ने प्रमाण के स्वरूप का, उसके भेदों का और उसके विषय का बहुत ही अच्छी तरह से निरूपण किया है। अब वे इस पञ्चम अध्याय के द्वारा प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से मान्य उस प्रमाण के फल का विचार कर रहे हैं। प्रमाण जब तक पदार्थ को विषय नहीं करता है तब तक उस विषय का बोध नहीं होता है। बो ही उस विषय का अज्ञान है । प्रत्यक्ष शान और परोक्ष ज्ञान का विषय सामान्य विशेष धर्मात्मक पदार्थ है सो जब ये ज्ञान अपने-अपने विषय को साक्षाद्रप से या प्रत्यक्ष रूप से जानते हैं तब उस विषय सम्बन्धी आवरण के अभाव हो जाने से उस विषय का उन-उन ज्ञानों द्वारा ग्रहण होता है । इस तरह से अपने-अपने विषय सम्बन्धी अज्ञान की निवृत्ति होना ही प्रमाण का प्रत्यक्ष परोक्ष का फल है और यह अज्ञाननिवृत्ति ही प्रत्येक ज्ञान का साक्षात् फल कहा गया है ॥१॥
सूत्र-साक्षात्परम्परा भेदात्तद् द्विविधम् ॥ २॥
संस्कृत टीका-अज्ञाननिवृत्त्यादि रूपं प्रमाण फलं द्विविधम् साक्षात्फलं परम्पराफलं चेति । तत्र प्रत्यक्षादि प्रमाण व्यापारानन्तरं कालाद्यव्यवधानेन यत्फलमुत्पद्यतेतत्प्रमाणस्य साक्षात्फलं व्यपदिश्यते । एतेन चक्षुरादिजन्य ज्ञान विशेष व्यापाराव्यवहितोत्तर कालावच्छेदेन जायमानं घटादि विषयकाज्ञाननिवत्ति रूपं फलं प्रमाणस्य साक्षात्फलम् । प्रमाण व्यापार व्यवहितोत्तर कालावच्छेदेन तु जायमानं हेयोपादेयोपेक्ष्य वस्तुषु हानोपादानोपेक्षाबुद्धिरूपं फलं प्रमाणस्य परम्परा फलमिति फलितम् ।। २ ।।
अर्थ-साक्षात्फल और परम्परा फल के भेद से प्रमाण का फल दो प्रकार का होता है।
हिन्दी व्याख्या-प्रमाण के द्वारा वस्तु के ग्रहण हो जाने पर जो उस वस्तु के अज्ञान की निवत्ति हो जाती है वह तो साक्षात्फल है और फिर जो उस अज्ञाननिवृत्ति रूप फल के बाद उसे वस्तु के सम्बन्ध में हान, उपादान और उपेक्षा रूप भाव होते हैं वह उसका परम्परा फल है।
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