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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र ३६
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उत्तर - एक द्रव्य में ये एक साथ एक काल में रहते हैं इसलिये इनमें परस्पर में एकमेकता हो जाने ऐसी बात नहीं है । देखो, लोकाकाश में तिल में तेल की तरह धर्मादिक द्रव्य व्याप्त होकर रह रहे हैं जिस स्थान पर धर्मद्रव्य है उसी स्थान पर अधर्मादिद्रव्य भी हैं। इस तरह एक ही क्षेत्र में धर्मादि द्रव्यों का वास होने पर भी उनमें परस्पर में एकमेकता नहीं आती है । क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने स्वरूप की अपेक्षा अलग-अलग है ।
प्रश्न - यह समाधान तो आपने द्रव्यों को लक्ष्य कर दिया है। हमारा तो ऐसा प्रश्न ही नहीं है। हम तो गुणों के सम्बन्ध में ऐसा पुछ रहे हैं कि जब ये एक ही द्रव्य में एक साथ रहते हैं तो फिर इनमें एकमेकता क्यों नहीं आती है ?
उत्तर - आपके प्रश्न का विचार अनेकान्त सिद्धान्त की मान्यतानुसार करने पर आत्मा के सुखज्ञानादिक युग किसी दृष्टि से एक भी हो सकते हैं क्योंकि इनका आश्रयभूत जो आत्मा है उससे ये किसी अपेक्षा अभिन्न हैं । इन ज्ञान- सुखादिकों का जो पिण्ड है यही तो आत्मा है । गुण और गुणी का तादात्म्य सम्बन्ध माना गया है। इस सम्बन्ध में गुण गुणीरूप और गुणी गुणरूप कहा गया है। इस तरह जैसा गुण गुणी का आपस में अभेद मान लिया जाता है उसी प्रकार से गुणों का भी आपस में अभेद मान लिया गया है। यदि ऐसी बात न मानी जावे तो प्रमाण सप्तभङ्गी ही नहीं बन सकती है। इसी विषय को सूचित करने के लिए टीकाकार ने 'अविरोधेन' ऐसा पद टीका में रखा हैं ।
द्रव्य में जो क्रम-क्रम से उत्पन्न होते हैं अर्थात् एक साथ जो अनेक रूप में द्रव्य में नहीं रहते हैं वे पर्याय विशेष हैं। सुख के सद्भाव में दुःख कभी नहीं रह सकता है और दुःख के सद्भाव में सुख नहीं रह सकता है । मृत्तिका द्रव्य की स्थास, कोष, कुशूल आदि जितनी भी ऋमिक पर्यायें हैं वे सब पर्याय विशेष हैं। क्योंकि ये पर्याय विशेष एक द्रव्य में एक समय में एक ही होते हैं अनेक नहीं ।
प्रश्न -- आपने गुण विशेष के दृष्टान्त में सुख को ग्रहण किया है और पर्याय विशेष के दृष्टान्त में भी सुख को ग्रहण किया है तो इससे क्या समझा जावे ? मुख गुण विशेष है या पर्याय विशेष है ? उत्तर - सुख और ज्ञानादिक आत्मा में एक साथ जैसे रहते हैं वैसे ही जो एक साथ बिना किसी विरोध के द्रव्य में रहते हैं वे गुण हैं और सुख और दुःख जिस प्रकार एक साथ एक द्रव्य में नहीं रहते हैं इस प्रकार से जो रहते हैं वे सब पर्याय विशेष हैं। इस बात को समझाने के लिये दोनों जगह सुख को ग्रहण किया है । सुख सामान्य आत्मा का गुण है, पर्याय नहीं ।
प्रश्न- पर्याय तो पराधीन होती है क्योंकि निमित्त मिलने पर ही द्रव्य में पर्याय का उत्पाद होता कहा गया है। तो गुण विशेष रूप जो सुखादि हैं वे भी क्या इसी प्रकार के हैं ? यदि हैं तो उन्हें भी पर्याय विशेष में ही रखना चाहिये, गुण विशेष में नहीं ।
उत्तर – इन्द्रियजन्य जो सुख विशेष है वह गुण विशेष में गृहीत नहीं हुआ है। क्योंकि 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' ऐसा अनन्तज्ञानियों का कथन है- जो नित्य ही द्रव्य के साथ रहते हैं वे ही सहभावी गुण हैं। ऐसे सहभावी गुण आत्मा के सामान्यज्ञान, सामान्यदर्शन और सामान्य सुखादि हैं, इनसे रहित आत्मा त्रिकाल में भी नहीं होता है और त्रिकाल में इनका विनाश भी नहीं होता है इसीलिये इन्हें गुण कहा गया है । पर्याय इससे विपरीत स्वभाव वाली होती है । वह उत्पन्न होती रहती है और नष्ट होती रहती है । एक पर्याय के नाश होने पर दूसरी पर्याय वस्तु में उत्पन्न होती है। इसी कारण उसे क्रमभावी कहा गया है ।