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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सूत्र ५
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यह हेतु सर्वप्रकार से निर्दोष है। रही बुद्धि की बात - सो उसका सर्वथा अभाव अचेतन पुथिवी आदिकों में माना ही गया है ।
प्रश्न- इस प्रकार के कथन से तो आप साधारण व्यक्ति को भले ही समझा सकते हो - पर जो समझदार है उसे नहीं समझा सकते हो क्योंकि आप हानि शब्द का अर्थ प्रध्वंसाभाव कर रहे हो तो उनमें बुद्धि का प्रध्वंसाभाव नहीं है, वहाँ तो उनका अत्यन्ताभाव है । और वह अत्यन्ताभाव हानि शब्द का अर्थ इष्ट नहीं है अतः यह छलात्मक उत्तर ठीक नहीं है ।
उत्तर - अरे भाई ! यह छलात्मक उत्तर नहीं है । छल तो सामने वाले प्रतिवादी व्यक्ति को येनकेनप्रकारेण चुप करने के लिए आश्रित किया जाता है । अचेतन पृथिवी आदिकों में बुद्धि का अत्यन्ताभाव नहीं है, प्रध्वंसाभाव ही है। और वह इस प्रकार से है - पृथिवीकायिक जीवों द्वारा जब पृथिवीरूप मुद्गल शरीर रूप से गृहीत किया हुआ रहता है तब उसमें बुद्धिरूप चेतनागुण का सम्बन्ध से अस्तित्व माना जाता है। पहचात् अपनी आयु के अवसान होते ही जब वही पुद्गल उनके द्वारा छोड़ दिया जाता है। तब उसमें से उसकी निवृत्ति होने पर उसका वहाँ अभाव हो जाता है। इस प्रकार "भूत्वा भावत्वम्" होकर के नहीं होना यह प्रध्वंसाभाव का लक्षण वहाँ घटित हो जाता है । क्योंकि बुद्धि के सद्भावपूर्वक ही वहां उसका उपाय सिद्ध है।नयाकि जव उद्गल में चेतनागुणरूप बुद्धि का सर्वात्मना अभाव होने से आत्मा में अपने निज लक्षण के अभाव की आशङ्का कैसे आ सकती है । यह तो तभी संभव थी कि जब आत्मा में इसका सर्वथा अभाव माना जाता । परन्तु ऐसी मान्यता तो है नहीं, अतः इस प्रकार की मान्यता में न तो आत्मा का ही सर्वथा अभाव हो सकता है और न उसमें उसके सामान्य बुद्धिरूप लक्षण का ही ।
प्रश्न - दोष और आवरण की हानि का अर्थ यदि आप प्रध्वंसाभाव करते हैं तो वह हानि ज्ञानावरणादिक पुद्गल द्रव्य की कैसे हो सकती है ? कारण कि "सतो न विनाशः असतश्चनोत्पादः " सत् पदार्थ का कभी विनाश नहीं होता है और असत्पदार्थ का कभी उत्पाद नहीं होता है। इस नियम के अनुसार ज्ञानावरणादि पुद्गलों का द्रव्यरूप होने से प्रध्वंसाभाव रूप क्षय कैसे हो सकता है । अन्यथा मूलद्रव्य के विनाश मानने पर तो जैन सिद्धान्त की प्रक्रिया ही अस्तव्यस्त हो जाती है ।
उत्तर- ऐसा नहीं है जैसा कि तुम कह रहे हो । ज्ञानावरणादिक द्रव्य नहीं है ये तो कार्मणवर्गणारूप द्रव्य की पर्यायें हैं। निमित्त को लेकर जब इन कामणिवर्गणाओं में ज्ञानावरणादिक पर्यायरूप परिणमन हो जाता है तब उनकी कर्म संज्ञा हो जाती है। निमित्त के हटने पर द्रव्य अपने रूप में परिण मित होता रहता है । इस प्रकार कार्मणवर्गेणारूप द्रव्य कर्मपर्याय से रहित होकर अकर्मरूप पर्याय से परिणमित हो जाता है । निमित्त के मिलने पर जैसे वह कर्मरूप पर्याय से परिणमित होने के स्वभाव बाला था उसी प्रकार निमित्त के हट जाने पर अकर्मरूप पर्याय से परिणमित होना भी उसका एक स्वभाव है। इसी का नाम आवरणादिक का क्षय है। जिस प्रकार सुवर्ण आदि की शुद्धि उससे उसके मैल आदि के हट जाने पर होती है इसी प्रकार आत्मा की शुद्धि भी कर्मरूप मंल के हट जाने पर होती है । दूसरे शब्दों में इसे यों भी कह सकते हैं— केवल शुद्ध सुवर्ण को उपलब्धि ही उसके मेल की निवृति जैसी मानी जाती है उसी प्रकार केवल शुद्ध आत्मद्रव्य की उपलब्धि भी आवरणादिकों की निवृत्ति है । यह उनकी निवृत्ति या केवल आत्मा की उपलब्धि ही कर्मों का और मैल का क्षय है । यह क्षय वहां से उन पर्यायों का हट जाना रूप ही है ।
प्रश्न -- जिस प्रकार मृतिका द्रव्य के वर्तमान रहने पर निमित्त के मिलते ही उसमें घट आदि पर्यायों का उत्पाद होना देखा जाता है उसी प्रकार कार्मण द्रव्य के सद्भाव में निमित्त मिलने से उसमें