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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र ३६ हिन्दी व्याख्या-गुण और पर्याय के भेद से विशेष भी दो प्रकार का है। सामान्य का स्वरूप निरूपण करके विशेष का स्वरूप निरूपण करने के लिये सूत्रकार ने इस सुत्र की रचना की है । यह इससे भित है, यह इससे भिन्न है इस प्रकार की परस्पर में भिन्नता की बुद्धि का जनक विशेष होता है। यह विशेष गुण और पर्याय के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। इनमें गोत्व घटत्व आदि सामान्य धर्मवाले गौ घट आदि पदाथों में शुक्लता, नीलता, रक्तता आदि जो गुण हैं वे गण विशेष हैं। इसी प्रकार ऊध्वंता सामान्य रूप जो सुवर्ण-मृत्तिका आदि द्रव्य हैं उनसे जो कटक, अण्डल आदि पर्याय बनती हैं, शराव, उदश्चन आदि पर्याय बनती हैं ये सब पर्याय पदवाच्य हैं । यह तो विशेष का लक्षण प्रकट ही कर दिया है कि विशेष व्यावृत्ति बुद्धि का जनक होता है सो श्याम विशेष शुक्ल विशेष से भिन्न है, शुक्ल विशेष नीलविशेष से भिन्न है इत्यादि रूप से गुणविशेष और मृत्तिका आदि द्रव्यों की शराव, उदब्चन आदि पर्याय एक पर्याय दूसरी पर्याय से भिन्न है इस प्रकार से व्यावृत्ति बुद्धि की जनक होती है । अतः विशेष लक्षण से समन्वित होने के कारण गुणों को और पर्यायों को विशेष माना गया है ।।३।।
सूत्र-अभिन्नकालबत्तिनः सुख-ज्ञानादयो गुणाः।।
भिन्न कालवत्तिनश्च सुख-दुःखादयः पर्यायाः ॥ ३६ ।। संस्कृत टोका-गुण पर्याय भेदेन विग्यस्य द्वं विध्यमुक्तम्-- तत्रात्मादिषु वस्तुपु सुख ज्ञानादयो ये विसदृश परिणामा भवन्ति ते अभिन्नकाल वत्तिस्त्रेन-सहभावित्वेन - Yण पदेन व्यपदिश्यन्ते । आत्मादि वस्तुषु यस्मिन् काले सुखं वर्तते तस्मिन्नेव काले तत्राविरोधेन ज्ञानादिकमपि वर्तते । यथाम्रादिषु रूपरसादिकं युगपदाविरोधेन बर्तते तथैव सुखज्ञानादि गुणानामपि वृत्तिरेका विरोध विना समुपलभ्यत एवं सहभाविनो गुणा इतिवचनात् । येषामेकत्र वृत्तौ काल भेदाभावो भवति न एनाभिन्नकाल वत्तिनो भवन्ति । पर्यायाः सुखदुःखादयः कोशकुशूलादयश्च भिन्न काल बत्तिनो भवन्ति । एकस्मिन् द्रव्ये क्रमश एवं तेषामुपलम्भात् क्रमत्तिनः पर्याया इतिवचनात् यस्मिन् काले आत्मादि वस्तुषु सुखं वर्तते तस्मिन् काले दुःखं न वर्तते ॥ ३६॥
अर्थ ---जो द्रव्य में एक ही काल में एक साथ रहते हैं ऐसे सुखज्ञानादिक गुणरूप विशेष हैं और जो द्रव्य में एक ही काल में एक साथ नहीं रहते हैं ऐसे सुख-दुःख आदि परिणाम पर्याय रूप विशेष हैं ।। ३६ ।।
हिन्दी व्याख्या-वस्तु सामान्य विशेष धमत्मिक है यह प्रकट किया जा चुका है। इसमें सामान्य धर्म का प्रतिपादन करके अब विशेष धर्म का प्रतिपादन करने के लिये उसके प्रतिपादित गुण और पर्याय का क्या स्वरूप है यह समझाया जा रहा है । आत्मा आदि वस्तुओं में विसदृश परिणाम रूप सुखज्ञान आदि पाये जाते हैं, वे गुण बिशेष हैं। क्योंकि इनका वहाँ रहना एक ही काल में एक साथ होता है । ऐसा नहीं है कि--जिस काल में आत्मा में सुख रहता है उसके साथ उस काल में ज्ञान नहीं रहता हो। दर्शन नहीं रहता हो । वीर्य आदि और भी गुण नहीं रहते हों। इन गुणों को एक साथ एक आत्मा में रहने में किसी भी प्रकार के विरोध का सामना नहीं करना पड़ता है । आम में जिस प्रकार से एक साथ एक ही काल में रूप, रस, गन्ध आदि गुण पाये जाते हैं उसी प्रकार से आत्मादि द्रव्यों में भी सुख ज्ञान आदि गुणों का सद्भाव अविरोध रूप से माना गया है। क्योंकि ये भी अविरोध रूप से वहाँ अपना अस्तित्व रखते हैं।
प्रश्न-यदि एक द्रव्य में एक साथ ये गुण रहते हैं एक ही काल में तो फिर इनमें परस्पर में एकमेकता क्यों नहीं हो जाती है ?