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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टोका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र २१-२२
|१०७ क्योंकि वह कहीं-कहीं पर प्रधान भाव से विधि का प्रतिपादक भी होता है । अतः जिस प्रकार द्वितीयभंग में शब्द परद्रव्यादि चतुष्टय को लेकर प्रधानता से नास्तित्व धर्म का प्रतिपादक हुआ है, उसी तरह वह प्रथमभंग में स्वद्रव्यादि चतुष्टय को लेकर विधि का भी प्रधानभाव से प्रतिपादक हुआ है। इतने पर भी यदि यह कहा जावे कि शब्द अप्रधान रूप से ही विधि का प्रतिपादक होता है तो इसके समाधान निमित्त यह कहा गया है कि जिसे कहीं पर भी प्रधानता का पद प्राप्त करने का सौभाग्य ही लब्ध नहीं हुआ है उसे अप्रधालता की कोटि में कैसे डाला जा सकता है ? जो कहीं प्रधान बनता है वही कहीं अप्रधान बनता है और जो कहीं अप्रधान बनता है वही कहीं पर प्रधान बनता है। अतः यह एकान्त कथन कि शब्द प्रधान भाव से निषेध का ही प्रतिपादन करता है एवं गौणरूप से नास्तित्व का ऐसा मानकर प्रथम भंग के आस्तत्व का सिन्दूर कैसे पोंछा जा सकता है ।। २० ॥
सूत्र-विधिनिषेधान्यतरप्रतिपादनस्य प्रधानताशब्दे क्रमादुभयकान्ताधान्यमस्त गमयति ॥२१ ।।
संस्कृत टीका- प्रथम द्वितीय भंग प्रतिपाशयोरर्थयोरेकान्ततां निराकृत्य सम्प्रति तृतीयभंग प्रतिपाद्यस्वार्थस्यकान्तता निराचिकीर्षुः सूत्रकारः विधि निषेधान्यतरेत्यादि मूत्रमाह-शब्दः क्रमादुभयमेव प्रधानभावेनाभिधत्त, स्वद्रव्यादि चतुष्टयापेक्षयास्तित्वं पर-द्रव्यादि चतुष्टयापेक्षया च मास्तितम् । एवञ्च तृतीयभंगे प्राधान्येन क्रमादुभयधर्म प्रतिपादनकान्तता यायतीथिकैरुररीकृता सा न ममीचीना शब्दे विधि-निषेधान्यतर धर्म प्रतिपादनोपलम्भात् । कथमिति वेत्प्रथम द्वितीयभंगावलोकनीयो।
हिन्दी व्याख्या-जो ऐसा कहते हैं कि शब्द प्रधानता से क्रमशः विधि और निषेध का ही बोधक है, विधि को प्रधान करके वह निषेध को गौण नहीं करता है और निषेध को प्रधान करके विधि को गौण नहीं करता, अतः वह प्रथमभङ्ग और द्वितीयभङ्ग को नहीं बनाता है केवल एक तीसरे ही भंग को बनाता है । सो इस प्रकार की यह तृतीयभंग को मानने की जो एकान्तता है उसी का विचार इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने किया है । इसमें यह समझाया गया है कि इस प्रकार की एकान्त मान्यता सुसंगत नहीं है । क्योंकि जब तक इन दोनों अस्तित्व नास्तित्व धर्मों का सत्त्व ही सिद्ध नहीं होगा । तब तक इनमें मुख्यता और गौणता के होने का कथन प्रमाणित नहीं हो सकेगा और इसके अभाव में तृतीय भंग में जो इन्हें क्रमशः प्रधानता दी गई है वह कैसे प्राप्त हो सकेगी? अतः इस "शब्द द्वारा दोनों धमों का प्रतिपादन क्रमशः प्रधान रूप से ही होता है मुख्य गौण रूप से नहीं" एकान्त मान्यता को छोड़कर इसे कथञ्चिद् रूप में ही स्वीकार करना चाहिये-जिससे प्रथम और द्वितीय भंग की मान्यता पर भी आँच न आ सके । इसलिये प्रथम भंग अपने विषय को कथञ्चित् मुख्य रूप से और द्वितीय भंग अपने विषय को कयश्चित् मुख्य रूप से और यह तृतीय भंग प्रथम द्वितीय दोनों भंगों के विषय को कञ्चित् क्रमशः मुख्य रूप से प्रतिपादन करता है ऐसी मान्यता को ही निर्दोष मानना चाहिये । यही निष्कर्षार्थ इस सूत्र और इसकी टीका का है।
सूत्र-अवक्तध्य शब्दनापि वाच्यत्वाभाव प्रसंगतश्चतुर्थ भंगकान्तोऽप्यकान्तः ।। २२ ।।
संस्कृत टोका--तृतीय भंगस्यैकान्तं निरस्य चतुर्थ भंगकान्तमकान्तं प्रदर्शयतिशब्दो युगपदुमयार्थस्यावाचक एव तादृश वाचक शब्दा भावादित्यपि न युक्तियुक्तं तस्यावक्तव्य शब्देनापि अनिर्देश्यत्वात्अवाच्यत्वात् अतोऽवाच्यत्व प्रसंगतश्चतुर्थभंगैकान्तो न श्रेयान् वदतोव्याघातात् ।