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ग्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र ३१ सूत्रार्य-प्रमाणभूत ज्ञान का विषय सामान्य एवं विशेष आदि धर्मों वाला पदार्थ होता है ।३०१
हिन्दी ध्यास्या-कितनेक वादी ऐसे हैं जो ज्ञान का विषय केवल सामान्य ही मानते हैं, और कितनेक केवल विशेष ही मानते हैं तथा कितनेक ऐसे भी हैं जो परस्पर निरपेक्ष सामान्य और विशेष को ही ज्ञान का विषय मानते हैं, इनका ऐसा कहना है कि “पदार्थों में-घट-पटादिकों में जो अनुवत्ति प्रत्यय होता है वह सामान्य के साथ उस पदार्थ का सम्बन्ध है इसलिए होता है और जो व्यावृत्ति प्रत्यय होता है वह उस पदार्थ के साथ सम्बन्धित विशेष के कारण होता है। कोई भी पदार्थ स्वयं न सामान्यात्मक और
वशेषात्मक है। सामान्य और विशेष स्वयं पदार्थ माने गये हैं। वैशेषिकों की ऐसी मान्यता है। जैन जानिकों की ऐसी मान्यता है कि पदार्थ स्वयं ही सामान्य विशेष गुणवाला है । अतः उनके यहाँ से और बिशेष ये पदार्थरूप नहीं माने गये है किन्तु पदार्थ के धर्मरूप-गुणरूप-माने गये हैं ।' धर्मी से धर्म भिन्न नहीं होता है ऐसा अनेकान्त का सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के अनुसार प्रमाणभूत ज्ञान का विषय सामान्य विशेषात्मक पदार्थ कहा गया है। पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है । इसमें यह हेतु प्रकट किया गाय है कि जब हम गाय को देखते हैं तो उस गाय को लेकर ही अन्य देखी जाने वाली गायों में भी यह गया है ऐसी प्रतीति होती है। और यह भी प्रतीति होती है कि गाय से महिष भिन्न है ! अथवा यह गाय उस काली गाय से भिन्न है । इस तरह से हमें जी यह अनुगा तथा कार द्वारा पामयता रूप प्रतीति एवं भिन्नता की प्रतीति हुई है वह उस गोत्व सामान्य विशिष्ट एव विशेष धर्म विशिष्ट गाय से ही हुई है। गाय से भिन्न रहे हए सामान्य-विशेष द्वारा नहीं हुई है। वैशेषिकों ने सामान्य और विशेष वर्म अपने व्यनियों से सर्वथा जुदे माने हैं और परस्पर निरपेक्ष माने हैं तब कि जैन दार्शनिकों ने इन्हें वस्तु के स्वरूपभूत और उससे कञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न माना है । प्रत्यक्षज्ञान से जैसी इनकी प्रतीति ये दोनों वस्तु के स्वभावभूत हैं ऐसी होती है-प्रत्यक्ष से ये जाने जाते हैं-उसी प्रकार से परोक्ष प्रमाणभूत ज्ञान भी इन्हें जानता है । इसलिये ऐसी जो किसी की मान्यता है कि परोक्षप्रमाण केवल सामान्य को ही जानता है और विशेष को प्रत्यक्ष जानता है सो यह मान्यता ठीक नहीं है । क्योंकि सामान्य को छोड़कर विशेष और विशेष को छोड़कर सामान्य स्वतन्त्र नहीं रहता है । ये दोनों साथ-साथ ही एक जगह रहते हैं। अतः एकान्ततः इनमें पार्थक्य नहीं है । अन्यत्र भी ऐसा ही कहा गया है-विशेषविहीन सामान्य गधे के सींग की तरह असत् है और सामान्यविहीन विशेष भी इसी तरह है-अर्थात् गधे नी मींग के जैसा असत है । अतः यही मान्यता रचित है कि प्रमाण का जो विषय होता है वह सामान्य विशेषात्म होता है। केवल सामान्यात्मक और केवल विशेषात्मक पदार्थ प्रमाण का विषय नहीं होता है, क्योंकि ऐसा पदार्थ गधे की सींग की तरह संसार में है ही नहीं, जो प्रमाण का विषय हो सके ।।३०॥
सूत्र-अनुवृत्त व्यावृत्त प्रतीतिविषयत्वात् पूर्वोत्तराकारहानोपादानावस्थानलक्षणपरिणत्यार्थ क्रियाकारित्वाञ्च ॥३१॥
संस्कृत टीका-पवादि वस्तुनः सामान्य विशेषात्मकत्वं सामान्यतया प्रसाध्य अधुना सोपपत्तिकं
-तकंग्रह
१. द्रव्यगुण कर्म मामान्य विशेष समवायाभाषाः सप्तपदार्थाः । २. न धर्म धमित्वमतीवभेदे त्यास्ति चेन्न वितयं चकास्ति ।
इदेवमित्यस्ति मतिश्च वृत्तीन गौणभेदोऽपि च लोकबाध ।।
-स्थादाद मंजर्याम् ।