Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 205
________________ न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र १८ |१०५ भङ्ग में प्रकट किया गया है। पर इस तृतीय भङ्ग में इन दोनों की क्रमशः मुख्यता हुई है। इसी कारण यह तृतीय भङ्ग इन प्रथम और द्वितीय भङ्गों से भिन्न कहा गया है। और जब इन दोनों धर्मों की युगपत् मुख्यता की जाती है उस अवस्था में इन धर्मों द्वारा वस्तु अवक्तव्य हो जाती है । इस तरह वस्तु अस्तित्वनास्तित्व धों द्वारा क्रमशः व्यक्तव्य होती हुई भी दोनों धर्मों की युगपद मुख्यता में वह अबक्तव्य भी हो जाती है। इस तरह घटादिक वस्तु किसी अपेक्षा अस्तित्व वाली भी है, किसी अपेक्षा नास्तित्व धर्मवाली भी है और किसी अपेक्षा अधक्तव्य धर्म वाली भी है, यही इस भंग का निष्कर्षार्थ है। सप्तभङ्गी के स्वरूप कथन में यह बतलाया गया है कि एक ही वर्म के विषय में सात प्रकार के वचनप्रयोग को सप्तभंगी कहते हैं । अब हम इसी सात प्रकार के वचनप्रयोग को सरल रूप से समझने के लिए जिनदत्तगत पुत्रत्व धर्म को लेकर घटित कर प्रकट करते हैं-- स्यादस्ति जिनदत्तः पुत्रः (१) स्थानास्ति जिनदत्तः पुत्रः (२) स्यादस्तिनास्ति जिनदत्तः पुत्र (३) स्यादवक्तयध्यो जिनदत्तः पुत्रः (४) स्यादस्ति अवक्तव्यो जिनदत्तः पुत्रः (५) स्यान्नास्ति अवक्तव्यो जिनदत्तः पुत्रः (३) स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यो जिनदतः पुत्रः (७) । इस प्रकार से जिनदत्त में एक पुत्रत्व धर्म को लेकर सात प्रकार के ये वचन प्रयोग होते हैं । जब हम जिनदत्त को "यह पुत्र है" इस प्रकार से विवक्षित करते हैं तो इसका यह मतलब नहीं होता है कि जिनदत्त पुत्र ही है । क्योंकि ही शब्द का प्रयोग उसमें इतर अपुत्रत्व आदि अनेक धर्मों का व्यवच्छेदक हो जाता है और एक पुत्रत्व धर्म की ही एकान्त से बह उसमें प्रतिष्ठा करता है अतः इस "ही" को हटाने के लिये हो "भी" का स्थानापन्न "स्यात्" शब्द प्रयक्त हआ है, जो इस बात को उदघोषित करता है कि जिनदत्त अपने पिता की अपेक्षा से ही पत्र है और दूसरी किसी ओर अपेक्षा से वह पुत्र नहीं है (किन्तु अपनी पत्नी की अपेक्षा से तो वह पति भी है) इस प्रकार जिनदत्त में ये दो वचन प्रकार बनते हैं जिनदत्त किसी अपेक्षा पुत्र भी है (१) किसी अपेक्षा जिनदत्त पुत्र नहीं भी है (२) । परन्तु जिनदत्त में ऐसा नहीं है कि पुत्रत्व धर्म और अपुत्रत्व धर्म एकदूसरे धर्म के अस्तित्व काल में वर्तमान नहीं है । पर उनका प्रकाणन प्रधान रूप से क्रमशः ही हो सकता है, अक्रमशः नहीं । अतः उस अपेक्षा तीसरे व्यक्ति की दृष्टि में जिनदत्त पुत्र भी है और पुत्र नहीं भी है ऐसा यह तृतीय वचन प्रकार बन जाता है । इन दोनों धर्मों को एक साथ जिनदत्त में प्रकाशन करने वाला कोई एक शब्द नहीं है-अतः इस अपेक्षा जिनदत्त क्या है ? पुत्र है या अपुत्र है यह कहा नहीं जा सकता है । इसलिए वह अध्यक्तव्य भी है । केवल पुत्रत्व की विवक्षा से वह जिनदत्त पुत्र भी है और पुत्रत्व-अपुत्रत्व की बुगपत् विवक्षा से स्यात् पुत्रः स्यादवक्तव्यश्च यह उसमें पाँचवा भंग-बचन प्रकार बन जाता है। केवल अपुत्रत्व की विवक्षा से एवं दोनों की-युबल्व अपुत्रत्व की युगपत् विवक्षा से वह "स्यादपुत्रः स्यादवक्तव्यश्च" इस छठे वचन प्रकार का वाच्य बन जाता है। दोनों धर्मों की पुत्रत्व अपुत्रत्व की क्रमशः प्रधानता लेकर वाच्यता में और इन दोनों की युगपत्प्रधानता लेकर जब विचारित होता है तब वह "स्थात्पुत्रः स्यादपुत्रः स्यादवक्तव्यश्च" इस सातवें वचन का वाच्य बन जाता है सू०१७॥ सूत्र---विधेरिव निषेधकस्यापि बोधकत्वाच्छब्दातत्प्रतिपत्तिः ॥ १८ ॥ संस्कृत टोका-प्राधान्येनेति पदमत्राध्याहार्यम् । तस्माद् यथा शब्दः प्रधानतया विधि बोधयति न्या टी०१४

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