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न्यायरत्न : न्यावरत्नावली टीका : पतुर्थ अध्याय, सूत्र १४
1१०३ अस्तित्व धर्म का निशान नहीं हो के गा हागिन धोंगुगपत् प्रतिपादन न हो सफने के कारण वस्तु को कञ्चित् अबक्तब्य कहा गया है।
प्रश्न-ऐसे कई शब्द कोषादि में मिलते हैं जो एक ही साथ अनेक अर्थों का ज्ञान करा देते हैं, जैसे “गो" शब्द गाय, ब्रह्मा, आत्मा, वाणी आदि अर्थों का; व्याकरण प्रसिद्ध सन् शब्द शतृ और शानन् का; एवं पुष्पदन्त शब्द चन्द्र और सूर्य का एक साथ ज्ञान करा देते हैं फिर आप ऐसा कैसे कहते हैं कि इन दोनों धर्मों का एक साथ प्रतिपादन करने वाला कोई शब्द नहीं है-अतः वस्तु कचित् अवतव्य है । क्योंकि इन पूर्वोक्त शब्दों की तरह ही हम कोई ऐसा एक साङ्केतिक शब्द मान लेंगे कि जिसके द्वारा इन दोनों धर्मों का हम एक साथ ज्ञान कर लेंगे ।
उसर-ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि जब यह सिद्धान्त है कि अर्थभेद से उसके वाचक शाब्द में और शब्दभेद से उसके वाच्य अर्थ में भेद होता है, नहीं तो वाच्य-वाचक सम्बन्ध्र ही घटित नहीं हो सकता तब गाय अर्थ का बाचक गो शब्द भिन्न है और वाणो अर्थ का वाचक गो शब्द भिन्न है। इस तरह अपने-अपने अर्थ को कहने वाले गो शब्द वाच्यार्थ के भेद से भिन्न-भिन्न ही हैं, वे एक नहीं हैं । परन्तु उनमें जो एकत्व की प्रतीति होती है बह सादृश्य से होती है । इसी प्रकार सत्। शब्द से शतृ और शानच इन प्रत्ययों का ज्ञान भी क्रमशः ही होता है क्योंकि शब्द में एक बार में एक ही अर्थ का.प्रतिपादन करने की शक्ति है, अनेकार्थ का एक साथ प्रतिपादन करने की शक्ति नहीं है । ऐसा ही कथन "पुष्पदन्त" शब्द में अपने अर्थ का प्रतिपादन करने के सम्बन्ध में जानना चाहिये।
प्रश्न-ऐसा कहकर आप हठात् अपनी बात मनवाना चाहते हैं । क्या आपको यह नहीं मालूम हैं कि जब “सेना" शब्द का प्रयोग किया जाता है तब वह "सेना" शब्द युगपत् हाथी, घोड़ा, बैस, सिपाही, वीरयोद्धा इत्यादि अनेक अर्थों का बोधक होता है ? इसी प्रकार "वन" शब्द खदिर, पलाश आदि अनेक अर्थों का युगपत् ज्ञान कराने वाला होता है । फिर हम यह कैसे मान लें कि एक शब्द युगपत् अनेक अर्थों का बाधक नहीं होता है ?
उत्तर सेना, वन आदि शब्दों की भी प्रवृत्ति युगपत् अनेकार्थ के कहने में नहीं होती है। किन्तु हाथी, घोड़ा, रथ आदि की विशेष प्रत्यासत्तिरूप एक समूह अर्थ के कहने में ही होती है। हाथी, घोड़ा, रथ आदि की विशेष प्रत्याझतिरूप एक समुदाय ही सेना है और इसी अपने एक वाच्यार्थ का वाचक वह सेना शब्द है, हाथी, घोड़ा आदि अनेक अर्थों का नहीं । इसी प्रकार से वन शब्द के सम्बन्ध में भी यही कथन जानना चाहिये । द्वन्द्व समास एवं कर्मधारय समास ये सब भी एक साथ अपने वाच्यार्थ को नहीं कहते हैं। इसी प्रकार से प्रमाणवाक्य और स्यात्पद ये सब भी युगपत् अपने वाच्यार्थ का कथन नहीं करते हैं । इस सम्बन्ध में विशेष शङ्का समाधानपूर्वक कथन मध्यमोपयोगी टीका के द्वारा किया जायगा। यह प्रथमापरीक्षोपयोगी टीका है अतः उसके अनुरूप ही यहां यह प्रकरण "युगपत् तादृश प्रतिपादक शम्दाभावात् संकेतितोऽपि शब्दो युगपदनेकार्थ प्रत्यायनेनालम्" इस पाठ के असली हृद्यार्य को प्रकाशित करने
१. "जनेन्द्र व्याकरण" में शतु और शानम् प्रत्यय की सत् ऐसी संज्ञा की गई है२, "साहतिकमेकं पदं तदभिधातु समर्थ मित्यपि न सत्यम् तस्यापि क्रमेणार्घद्वयस्य प्रत्यायने सामोपपत्तः।
-स्याद्वादरत्नाकर पृ० १६,