________________
११४ ।
न्यायरत्न : स्ययरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र २७-२८ द्रव्याथिकनय का विषय द्रव्य और पर्यायाथिकनय का विषय पर्याय हैं । अतः जब किसी भी वस्तु का विचार किया जाता रहा है उस विचार में ये दो ही दृष्टियां काम देती हैं । द्रव्यदृष्टि से वस्तुगत अनन्त गुणादि सब एक द्रव्य रूप ही हैं, वे उससे भिन्न नहीं हैं । अतः द्रव्यदृष्टि एक द्रव्य को ही विषय करती है, गुणपर्यायादि को नहीं । इसी तरह पर्याय दृष्टि द्रव्य को विषय नहीं करती, वह पर्याय को ही विषय करती है। इस तरह द्रव्यदृष्टि द्रव्य को अनन्त गुणात्मक मानकर जब चलती है तो इससे यही निस्कर्ष निकलता है कि द्रव्य और द्रव्य की पर्यायों में आपस में इसकी अपेक्षा भेद नहीं है किन्तु अभेद है। पर्याय परिवर्तनशील होती है और वे भिन्न-भिन्न होती हैं इसलिये अमन्त धर्मों में पर्यायों में अभेद का उपचार किया जाता है अतः इस रूप से जो वस्तु का कथन होता है वही सकलादेश है और यह प्रमाणाधीन है ।२६।
सूत्र-- एकधर्ममुखेन भेदं कृत्वा वस्तुप्रतिपादक वाक्यत्वं विकलादेशत्वम् ॥२७॥
संस्कृत टीका-यदा पूर्वोक्न कालादिभिः कृत्वा नथविषयीकृतस्य बस्तु धर्मस्य भेदो विवक्ष्यते तदा एकस्य शब्दस्य युगपदनेकार्य प्रतिपत्तिजनने सामर्थ्याभावेन क्रमशो बस्तुगनैकक धर्म प्रतिपादन परस्य विकलादेशकत्वं जायते । एकक धर्म प्रतिपादनद्वारा तेनैक क धर्म विशिष्ट वा प्रतिपादनान् । तथा चैकधर्मात्मक वस्तु विषयक वोधजनक वाक्यत्वं विकलादेशत्वम् ।
सूत्रार्थ · वस्तुगत अनन्त धर्मों को भिन्न-भिन मानकर किमी एक धर्म की प्रधानता करके वस्त का प्रतिपादन करने वाला वाक्य विकलादेश कहा गया है ।
हिन्दी व्याख्या-कालादिकों द्वारा जिस प्रकार से वस्तुगत धर्मों में अभेदवृत्ति मानी जाती है उसी प्रकार उनके द्वारा भेदयत्ति भी समर्थित की जाती है। अतः वस्तगत जितने भी भिन्न-भिन्न हैं। उनमें से किसी एक धर्म को लेकर उस वस्तु का जो कथन किया जाता है वह नयवाक्य है। जैसे वस्तु अस्तित्व धर्मविपिष्ट है---यह नयवाक्य है, क्योंकि इससे वस्तु के शेष धर्मों को गौण करके एक अस्तित्व धर्म द्वारा ही उमका कथन किया गया है । इसी प्रकार से नयवाक्य नास्तित्वादि धर्मों को लेकर क्रमशः उस वस्तु को उस धर्मविशिष्ट प्रतिपादन करता है। यह प्रतिपादन करना ही विकलादेश है और यह नयाधीन है ।। २७ ।।
सत्र विषयाजन्यमपि ज्ञानं स्वावरणक्षयोपशमादिना तं प्रदीपवत्प्रकाशयति ॥ २८ ॥
संस्कृत टीका----बौद्धास्तावन्मन्यन्ते-"ना कारण विषयः" इति तेषां मान्यतानुसारेण ज्ञानं विषयाज्जायमानमेव तदाकारतां धारयत् तं विषयं गृह्णातीति अन्यथा घटज्ञानस्य घटएब विषयो न पट इति प्रतिनियमः कथं सिद्धि सोधपथमायास्यति । तेषामिमां मान्यतां परिहारार्थ स्वमान्यसां च स्थाप
रः "विषयाजन्यमपि" इत्यादि सूत्रं पाहन्यथा प्रदीपः स्वप्रकाश्य घटादिभ्योजातोऽपि स्वावारक कुड्याद्यपगमेन पदार्थान् प्रकाशयति तथैव ज्ञानमपि विषयाजन्यमपि विषयानाकारमपि स्वावरण क्षयोपशमानुसारमेव घटपटादि पदार्थान जानाति । अजन्यमिति पदमुपलक्षणं तेनातदाकारस्वस्यापि ग्रहणात् ॥ २६॥
हिन्दी व्याख्या-ज्ञान अपने ज्ञ य पदार्थों से उत्पन्न नहीं होता है और न उनके आकार का ही होता है फिर भी वह उन्हें प्रदीप की तरह अपने आवरण के क्षयोपशमादि के अनुसार ही प्रकाशित करता है। बौद्धों का ऐसा मानना है कि ज्ञान अपने द्वारा ज्ञेय घट-घटादि पदार्थों को तभी प्रकाशित कर सकता है