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पाबा : भागमा बाका : धतुर्थ अध्याय, सूत्र २५ सम्बन्धी बोध का जनक होता है-वह सकलादेश रूप प्रमाण वाक्य है । इसका तात्पर्य ऐसा है कि प्रमाण से जानी हुई अनन्तधर्मस्वभाववाली वस्तु के काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द की अपेक्षा से अभेदवृत्ति अथवा अभेद का उपचार करके सम्पूर्ण धर्मों को एक साथ प्रतिपादन करने वाले वाक्य को सकलादेश कहते हैं। प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म मौजूद हैं । इन समस्त धर्मों का एक
युगपत् कथन होना सर्वथा अशक्य है परन्तु फिर भी इन समस्त धर्मा का युगपत् एकाक्य द्वारा कथन हो सके इसके लिये एक तरीका है और उस तरीके का नाम ही प्रमाण वाक्य या सकलादेश है । जब ऐसा कहा जाता है कि "घट कथंचित् अस्तिस्वरूप है" । तब यही एक वाक्य घट के उस प्रतिरादित अस्तित्व धर्म के साथ शेष उस वस्तु रूप घट में रहे अनन्त धर्मों की अभेद वृत्ति मान लेता है या उसके साथ उन धर्मों का अभेदोपचार कर लेता है । इस अभेदवत्ति करने में या अभेदोपचार करने में ये काल, आत्मरून आदि वातें सापेक्ष होती हैं । घटादि पदाथों में जिस समय अस्तित्व सादि धर्म रहते हैं उस समय जममें और भी अनन्त धर्म रहते हैं । यह काल की अपेक्षा उस प्रतिपादित अस्तित्व धर्म के साथ अन्य अनन्त धर्मों की अभेदवृत्ति या अभेदोपचार है। इससे यह समझा जा सकता है कि अस्तित्वादि जितने भी धर्म उस बस्तु रूप घटादि पदार्थ में हैं वे सब एक हैं। अस्तित्व धर्म से भिन्न नहीं हैं । अत. एक अस्तित्व धर्म के प्रतिपादित होते ही उन समस्त धर्मों का प्रतिपादन हो गया समझ लिया जाता है । आरम रूप की अपेक्षा अभेदवृत्ति या अभेदोपचार इस प्रकार से होता है-जिस प्रकार अस्तित्व घटादि पदार्थ का स्वभाव है उसी प्रकार और भी उस घटादिरूप वस्तु के धर्म उसके स्वभाव रूप हैं । अर्थ की अपेक्षा अभेदवृत्ति या अभेदोपचार इस प्रकार से होता है-जिस प्रकार घटादि पदार्थ अस्तित्व धर्म के आधारभूत हैं, उसी प्रकार से वे और भी अन्य धर्मों के आधारभुत हैं। यहाँ अर्थ का अर्थ आधारभूत द्रव्य है । सम्बन्ध की अपेक्षा अभेदवृत्ति या अभेदोपचार इस प्रकार से होता है जिस प्रकार घटादि पदार्थ का और अस्तित्व धर्म का तादात्म्य सम्बन्ध है यही सम्बन्ध अन्य अशेष धर्मों का उस घटादि पदार्थ के साथ है। उपकार की अपेक्षा अभेदवत्ति या अभेदोपचार इस प्रकार से है जो उपवार अस्तित्व के द्वारा अपने स्वरूप में अनुराग उत्पन्न करता है वही अपने स्वरूप में अनुराग शेष धर्मों द्वारा भी किया जाता है । गणिदेश की अपेक्षा अभेदवृत्ति या अभेदोपचार इस प्रकार से होता है-गुणिदेश का मतलब है द्रव्य का आधारभूत स्थान-क्षेत्र । जो क्षेत्र द्रव्य से सम्बन्धित-तादात्म्य सम्बन्ध से युक्त हुए-अस्तित्व का है वहीं क्षेत्र उस द्रव्य से सम्बन्धित अन्य धर्मों का भी है। संमर्ग की अपेक्षा अभेदवृत्ति या अभेदोपचार इस प्रकार से होता है--एक घटादि रूप वस्तु की अपेक्षा जो संसर्ग अस्तित्त का है वही संसर्ग उसके साथ अन्य धर्मों का भी है । शब्द की अपेक्षा अभेदवृत्ति या अभेदोपचार इस प्रकार से होता है-जिस अस्ति शब्द से अस्तित्व धर्म जाना जाता है उसी अस्ति शब्द से अन्य और भी धर्म जाने जाते हैं । इस प्रकार से कालादि को लेकर एक अस्तित्व धर्म के साथ शेष अन्य धर्मों की द्रव्याथिकनय को अपेक्षा से अभेदयत्ति मान ली जाती है या पर्यायाथिकनय की अपेक्षा भिन्न-भिन्न रहे हुए भी उन सब धर्मों में अभेद का उपचार कर लिया जाता है।
अभेद वृत्ति द्रव्याथिक नय की "द्रव्य की समस्त पर्यायें द्रव्य का हैं।" इस मान्यतानुसार समस्त धर्मों में एवं अनेक धर्मियों में मानी जाती है और अभेद का उपचार इनमें इसलिये किया जाता है, कि पर्यायाथिक नय की मान्यता के अनुसार जितनी भी पर्याय है चाहे वे सहभावी रूप हो चाहे क्रमभात्रीरूप हों सब आपस में एक-दूसरे से भिन्न-भिन्न ही हैं । इसलिये एक प्रमाण वाक्य अनेकार्थ का बोधक नहीं हो