Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 202
________________ १०२ । न्यायश्न : न्यायररमावली टीका : मर्म अव्याय, मूत्र १३-१४ नहीं सघता है । सो जिस प्रकार हेतु में स्वसाध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा अस्तित्व विपक्ष में नहीं रहने रूप नास्तित्वाबिनाभावी है उसी प्रकार वस्तु में जो अस्तित्व धर्म है वह नास्तित्वाविनाभाषी है। यह बात ऐसी है जो सर्वानुभव प्रसिद्ध है ।। १२ ॥ सूत्र--स्यात्सदेव स्यादसदेवेति शमशो विधिनिषेधविवक्षया तृतीय भङ्गः ॥ १३ ।। संस्कृत टीका-प्रथम द्वितीय भङ्गाभ्यां जीवादि वस्तुनोऽस्तित्वं नास्तित्वञ्च पृथक्-पृथक् प्राधान्येनैव प्रतिपावित सम्प्रति तृतीय भंगेन क्रमशो जीवादि वस्तुनि विधि-निषेधकल्पनयाऽस्तित्वं नास्तित्वं चाह-यदा जीवादि वस्तु वत्तिनोरस्तित्व नास्तित्व धर्मयोः क्रमेण विवक्षा क्रियते तदा तदस्तु स्वद्रस्यक्षेत्र-काल-भाव रस्त्येव पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावस्तु नास्त्येव इत्येवं क्रमशो विधि-निषेषरूपयोरस्तित्व नास्तित्वधर्मयोः प्रतिपादकस्तृतीयभंगः सुस्पष्ट एवं । सूत्रार्थ-जीवाविक वस्तु कथञ्चित् सत्स्वरूप ही है और कथंचित् असत्स्वरूप ही है इस प्रकार क्रमशः विधि-निषेध की कल्पना से तृतीय भंग बनता है। हिन्दी व्याख्या-यह बात तो पहले समझा दी गई है कि प्रथम भङ्ग में प्रधानरूप से विधि विवक्षित हुई है और द्वितीय मङ्ग में प्रधान रूप से नास्तित्व धर्म विवक्षित हुआ है, अब इस तृतीय भङ्ग में क्रमशः दोनों धर्म प्रधान रूप से विवक्षित हुए हैं। जब जीवादि वस्तु में स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से विधि की विवक्षा की जाती है तब वह प्रधान हो जाती है और जब पर-द्रष्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से नास्तित्व धर्म की विवक्षा की जाती है तब नास्तित्व धर्म प्रधान होता है । इस तरह यहाँ पर प्रमशः दोनों धमों की प्रधानता है अतः यह तृतीय भङ्ग सुस्पष्ट है ।। ।। १३ ।।। सूत्र-स्यादवक्तव्यमेवेति युगपत् प्राधान्येन विधि-निषेधविवक्षया चतुर्थः ॥१४।। संस्कृत टीका-क्रमशः प्रधानभावेन विधि-निषेधयोस्तृतीयभङ्गः प्रतिपादितः सम्प्रति युगपद् विधिनिषेधयोः प्रधानमावेन जायमानं चतर्थ भद्ध प्रतिपादयितमाह-स्यादवक्तव्यमेवेल वस्सुमोजन्तधर्मात्मक त्वायुगपत्सकलधर्म निरूपणमशक्यम् अतो योगपद्य न बस मशक्यत्वाद् वस्तु कब्धिदवक्तव्यमेव युगपत् सादृश प्रतिपादक शब्दाभावात् संकेतितोऽपि शब्दो युगपदनेकार्य प्रत्यायमे मालम् ॥१४॥ सूत्रार्थ-जब अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनों धर्मों की युगपत् प्रधानता बतलाकर वस्तु का कथन किया जाता है तब वह वस्तु कथञ्चित् अवक्तव्य कोटि में आ जाती है । इसी बात को प्रतिपादित करने वाला यह चतुर्थ भङ्ग है। वस्तु अनन्त धर्मों से युक्त है अतः कोई ऐसा शब्द नहीं है जो एक साथ अनेक धर्मों का प्रतिपादन कर सके । क्योंकि जब वस्तु के अस्तित्व धर्म का प्रतिपावन किया जायेगा तव नास्तित्व धर्म का प्रतिपादन नहीं हो सकेगा और जब नास्तित्व धर्म का प्रतिपादन किया जायेगा तब १. 'मार्पितदया तं ।। २. सहावाच्यमशनित:" -अष्ट सहस्री कारिका १६, इसके लिये देखो-आप्तमीमांसा पर लिखा गया मेरा विस्तृत हिन्दी अनुवाद; तथा सप्तभङ्गी के स्वरूप को अच्छी तरह से जानने के लिये मेरे द्वारा अनूदित युक्त्यनुशासन को देखना चाहिये ।

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