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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र ११ .. प्रश्न--यदि स्यात्पद अनेकान्त का बोधक है तो इस तरह के पद के प्रयोग की आवश्यकता ही नहीं रहती है क्योंकि उसी एक अनेकान्त प्रतिपादक स्यात्पद द्वारा कथञ्चित् सदादि रूप अनेकान्त का प्रतिपादन हो जाता है।
उत्तर-शङ्का ठीक है । परन्तु विचार करने पर यह निर्मूल हो जाती है। क्योंकि स्यात्पद सामान्यरूप से ही अनेकान्त का प्रतिपादन करना है अतः उससे सामान्यतः अनेकान्त का बोध तो हो जाता है परन्तु फिर भी जो विशेषार्थीजन हैं उन्हें समझाने के लिए तो विशेष का प्रयोग करना ही पड़ता
लक्ष्य को लेकर यहाँ विशेष रूप से सद्-अस्तित्व–पद का प्रयोग किया गया है । यद्यपि सामान्य से वृक्ष के कहने पर विशेष वृक्ष का भी उसमें अन्तर्भाव हो जाता है। परन्तु फिर भी यह वृक्ष पीपल का है ऐसा विशेषार्थी को समझाने के लिये विशेषवाचक शब्दों का प्रयोग होता ही है | इसी अभिप्राय को लेकर "स्यात्सदेव सर्वम्” ऐसे विशेषवाचक पद का कथन किया गया है।
प्रश्न-ऐसा जब आपका कथन है कि वस्तु अनेक धर्मात्मक है तो फिर इसमे यह भी तो प्रतिपत्ति हो जाती है कि वस्तु कथंचित् सदादि धर्मवाली भी है। फिर उस विशेष रूप सदादि धर्म का बोध कराने वाले स्यात्पद कामो अनर्थक ही है। कमोनिशा निता दुला है
मोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञ: सर्वार्थात्प्रतीयते । यथैवकारोऽयोगादि व्यवच्छेद प्रयोजनः ॥१॥
अतः इस काम के अनुसार श्रोता को एवकार की तरह इसका भान स्वतः ही हो जायगा । अतः स्यास्पद का प्रयोग अकिञ्चकर ही प्रतीत होता है ?
उत्तर-श्रोता दो तरह के होते हैं—एक वे जो स्थाद्वाद न्याय में कौशल संपन्न हैं और दूसरे वे जो स्याद्वाद न्याय में कौशलसंपन्न नहीं हैं । इसलिये पहले प्रकार के श्रोताजनों की अपेक्षा को लेकर तो हमने भी स्यात्पद का प्रयोग सार्थक नहीं माना है। परन्तु जो दूसरे प्रकार के श्रोता हैं उन्हें स्याद्वाद सिद्धान्त में कुशलता प्राप्त कराने के निमित्त इस शब्द का प्रयोग आवश्यक है । उन्हें बिना इसका प्रयोग किये स्यावाद सिद्धान्त का भान नहीं हो सकता है । अतः उन्हें स्यात् शब्द के प्रयोग से यह समझाया जाता है कि घट पर-रूप स्तम्भादिक की अपेक्षा से सर्वथा अस्तित्व रूप विशिष्ट न होकर केवल अपने ही द्रव्यादि की अपेक्षा से अस्तित्वविशिष्ट है। इस तरह प्रत्येक जीवादिक वस्तु स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा से ही अस्तित्वविशिष्ट हैं, पर-रूपादि चतुष्टय की अपेक्षा से नहीं। .
प्रश्न-जब ऐसी बात है तो फिर वाक्य में सर्वत्र इसका प्रयोग देखने में क्यों नहीं आता है ? क्या कारण है ?
उत्तर-वाक्य में जो इसका प्रयोग आवश्यक होने पर भी देखने में नहीं आता है उसका कारण यही है कि वह सामर्थ्य से ही प्रतीत हो जाता है। जिस प्रकार वाक्य में अयोगव्यवच्छेदक एव शब्द के 'प्रयोग किये बिना भी समझदार व्यक्ति प्रकरणवश उसे समझ लेते हैं उसी प्रकार समझदार व्यक्ति स्यात्
शब्द का प्रयोग वाक्य में नहीं होने पर भी प्रकरण वश उसे प्रयुक्त हुआ जान लेते हैं। तभी तो उन्हें · इष्टार्थ का बोध हो जाता है। इसी सब प्रकरण को शंका-समाधानपूर्वक सुस्पष्ट करने के लिये "अतः पररूपेण तत्र सत्त्वं न स्यादित्यवबोधनार्थ स्यात् पदमुक्तम्" इस पाठ को टीकाकार ने रखा है। इतना