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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र ६ सूत्र-कथंचिन्नित्यानित्यात्मकः स्वरव्यञ्जनरूपोवर्णः ॥६॥
संस्कृत टोका-अकाराधाश्चतुर्दश स्वराः, ककारादीनि हकार पर्यन्तानि व्यञ्जनानि । एतानि स्वरव्यञ्जनरूपाण्यक्षराणि वर्णसंज्ञयाऽभिहितानि । सर्वाण्येतानि द्रध्यदृष्ट्या नित्यानि पर्यायदृष्टया चानित्यानि । भाषावर्गणारूप पुद्गलेरारभ्यमाणत्वात् शब्दस्य कथंचिदनित्यत्वं भाषावर्गणारूप द्रव्यात्मकत्वाच्च कथंचिनित्यत्वमित्यवगन्तव्यमविरोधात् । स्वयमर्थेभ्योरोचितत्त्वाच्च ॥६।।
हिन्दी व्याख्या ---अकारादि-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, ल , ए, ऐ, ओ, औ–१४ बर और क, ख, ग, घ, छ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, ब. ण, प, और ह ये ३३ व्य ञ्जन वर्ण कहे गये हैं। इनके सबके अलग-अलग अर्थ आदि एकार्थ नाम माला कोश में लिखे हुए हैं तथा चतुर्विंशति संधान आदि काव्यों द्वारा इन सबका यथास्थान प्रयोग कर अर्थ प्रस्फुटित करते हुए प्रकरणानुसार इनकी उपयोगिता प्रकट की गई है। वर्ण भाषावर्गणारूप पुद्गलों से निष्पन्न होते हैं । अतः ये इस दृष्टि से कथंचित् अनित्य और भाषावर्गणारूप पुद्गलात्मक होने से ये कथंचित् नित्य माने गये हैं । द्रव्य की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्रकट करने वाली दृष्टि का नाम पर्यायदृष्टि है, और द्रव्य को ही विषय करने वाली दृष्टि का नाम द्रव्यदृष्टि है । इसी अभिप्राय को लेकर वर्ण रूप शब्द में अपेक्षावश नित्यता और अनित्यता का कथन जैन दर्शनिकों ने किया है ।
प्रश्न-- यह बात समझ में नहीं आती है कि जो नित्य है वही अनित्य कह दिया जाता है, और जो कहीं अनित्य कहा जाता है वही नित्य कह दिया गया है ? ऐसी विरोधी बातें तो विचारतों की अकुशलता की ही द्योतक होती हैं।
उत्तर --विरोधी बातें तो विचारकों की अकुशलता की द्योतक होतो हैं, यह तो हम भी मानते हैं । परन्तु जहाँ पर विरोध नहीं है किन्तु विरोध होने जैसा प्रतीत होता है उसे विरोध कल्पित कर उसका विरोध करना यह तो युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता है। यदि मैं अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र हूँ तो अपने मातुल की अपेक्षा से भानजा भो है । कहिये जो पूत्र है वह भानजा कैसे बन गया ? पुत्रत्व और भानजात्य इन दोनों धर्मों में तो प्रबल विरोध है । क्योंकि जहाँ पर पुत्रत्व धर्म रहेगा वहाँ पर भागिनेयत्व धर्म नहीं रहेगा और जहाँ पर भागिनेयल्न धर्म रहेगा वहाँ पर पुत्रत्त्र धर्म नहीं रहेगा । यदि कहा जाय कि पिता की दृष्टि से जो पुत्र है, वह मामा की दृष्टि से भानजा हो सकता है । अपेक्षा से परस्पर विरोधी धर्म भी एक जगह स्थान पा लेते हैं, तो बस यही बात यहाँ पर भी है। शब्द भाषा वर्गणाओं से निष्पन्न होता है इस दृष्टि से वह अनित्य है। क्योंकि भाषावर्गणाओं का परिणमन ही तो शब्द है । और ये भाषावर्गणा पुद्गल रूप हैं, अतः पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से वह नित्य है। इस प्रकार शब्द में कथंचित् नित्यता और कथंचिदनित्यता भी आती है । न एकान्ततः नित्यता आती है, और न एकान्ततः अनित्यता ही आती है।
१. यह ग्रन्थ सुरेन्द्र कीति भट्टारफ का बनाया हुआ है। इसमें एक ही सुभद्र छन्द है । प्रत्येक पाद में आठ भगण हैं ।
चौबीस तीर्थंकरों की इस एक ही छन्द द्वारा स्तुति की गई है । इसकी स्वोपाटीका है । इसका अनुवाद मूलचन्द जैन शास्त्री श्री महावीर द्वारा किया जा रहा है।