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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीकाः चतुर्थ अध्याय, सूत्र
इसी प्रकार से यह भी मानना चाहिए कि शब्द में स्वार्थ को चाहे, वह यथार्थ हो या अयथार्थ हो प्रकाशित करने की शक्ति तो है, पर बिना किसी सङ्केत-ग्रहण के वह उसकी अभिव्यक्ति हुए बिना अपने कार्य को नहीं करता है। एतावता सहकारी कारण उसके उपग्राहक ही होते हैं, उसकी शक्ति पर प्रहार कारक नहीं होते।
प्रश्न-जद शब्द में अपने वाच्यार्थ को जैसा कहा गया है वैसा ही उसे प्रकट करने की क्षमता है, तो फिर उससे जायमान अर्थबोध में जो कहीं-कहीं अप्रमाणता देखी जाती है । सो क्यों देखी जाती है ?
उत्तर--शब्द में अपने वाच्यार्थ को जैसा वह कहा गया है वैसा ही प्रकट करने की क्षमता होने पर भी उससे जायमान अर्थबोध में जो कहीं-कहीं अप्रमाणता देखी जाती है, वह वक्ता के भीतर रहे हुए दोष के कारण देखी जाती है। यदि वक्ता सदोष है तो उसके शब्दों से जायमान अर्थबोध अप्रमाण होगा और यदि वक्ता निर्दोष है तो उसके शब्द से जायमान अर्थबोध प्रमाण होगा। यह निश्चित है कि शब्द से जायमान अर्थबोध प्रमाणता और अप्रमाणता दोनों से ही रहित होता है क्योंकि अर्थबोध की प्रमाणता एवं अप्रमाणता अर्थ की यथार्थता और अयथार्थता पर अवलम्बित है ।। ||
सूत्र-आदेश भेदाच्छन्दः स्वार्थे विधिनिषेधाभ्यां सप्तभंग्याऽऽलिग्यते ॥ ६ ॥
संस्कृत टीका-अन्तर्वहित्तिनां सर्वेषामेव जीनाजीवादि पदार्थानां स्वरूपमनन्तधर्मात्मकमेव वत्तं ते नान्यथा सत्त्वाभावेन वस्तुत्वाभावात् । तदात्मकतैय बस्तुता निगदिताऽर्हत प्रवचनेऽतः पदार्थस्वरूपप्रबोधनाय शब्दास्तद्गत प्रत्येक धर्ममाश्रित्य सप्तभङ्गी विशिष्टा जायन्तेऽन्यथा तत्स्वरूप प्रकाशकत्वासंभवात् । नहि किञ्चिदपि जीवादि वस्तु सदात्मकमसदात्मक वैकान्ततः संभवति परस्पर निरपेक्षोभयात्मके वा तथा ननु भूयमानत्वात् सर्वस्य जीवादि बस्तुनोऽनेक धर्मालिङ्गितत्वाच्च, न च वाच्यं परस्पर विरुद्धानां धर्माणां कथमेकर समावेशः संभवति इति आदेश भेदात्विवक्षावशात् विधिनिषेधाभ्याम् एकस्मिन्नपि वस्तुनि अनेकेषां धर्माणां समावेश संभवात् । विवक्षाया वैचित्र्यात् यत्रव सत्त्वं, तत्र वासत्त्वमपि, सत्त्वासत्त्वमपि, अवाच्यत्वमपि, सत्त्वम् अवाच्यत्वमपि, असत्त्वम् अवाच्यत्वमपि, सत्त्वमसत्त्वमवाच्यत्व मपि वर्तते । वस्तु व्यवस्थाया ईदृशत्वात्, यथा--देवदत्तः स्वपित्रपेक्षया पुत्रः, स्वपल्ल्यपेक्षया न पुत्रः, अत्रकस्मिन्नपि देवदत्त पेक्षावशात् पुत्रत्व धर्मोऽपि वर्तते, तदभावश्चापि वत्तते, पुत्रत्वस्य सत्त्वकालेऽपुत्रत्वस्यापि सत्वात् परन्तु पुत्रत्वधर्मस्य यथा विवक्षया सत्त्वमस्ति तथैव विवक्षया तस्या सत्त्वं नास्ति विरोधात् पुत्रत्वधर्मसत्त्वे अन्यस्या विवक्षायास्तद सत्त्वे चान्यस्या विवक्षायाः सत्त्वात् देवदत पुत्रत्य धर्म सद्भाव ख्यापनमेव । पुत्रत्वस्य धर्मस्य विधिस्तद सद्भाव ख्यापन च निषेधः, इत्थं विधिनिषेधावाश्रित्य सप्तभङ्गात्मकः शब्द प्रयोगो भवति–तयाहि-देवदत्तः कथञ्चित्पुत्रः, कथञ्चिदपुत्रः, कथञ्चित् पुत्रश्चापुत्रश्च, कथञ्चिदवक्तव्यश्च, कथञ्चित् पुत्रोऽवक्तव्यश्च, कथञ्चिदपुत्रोऽवक्तव्यश्च, कथञ्चित्पुत्रः कथञ्चिदपुत्रः कथञ्चिदवक्तव्यश्च, अमुना प्रकारेण शब्दो विधिनिषेधाभ्यामादेशभेदात्सप्तभंग्याऽऽलिंग्यते इति यदुक्त समीचीनमेव तदिति मन्तव्यम् ॥
सूत्रार्थ-विवक्षा के वश से शब्द अपने वाच्यार्थ में विधि और निषेध की कल्पना से सप्तभनी द्वारा आलिङ्गित होता है।
१. आदेश भेदोदित सप्तभङ्गमदीदृशस्त्वं बुधरूपद्यम् । -स्याद्वादमंजर्याम् ।