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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, मूत्र ७
प्रश्न--जिस प्रकार बेपैदी का लौटा इधर-उधर हुलक जाता है। उसी प्रकार का आपका यह कथन क्यों न माना जाय क्योंकि इसमें किसी एक पक्ष का समर्थन नहीं मिलता है ?
___ उत्तर --एक पक्ष का समर्थन नहीं मिलता है इसलिये हमारा यह कथन बेपेदी के लोटे के समान मान लिया जाय, यह तो कोई युक्तियुक्त बात नहीं प्रतीत होती है। क्योंकि "यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम्" पदार्थों का स्वभाव ही ऐसा है, इसमें मारा क्या घश | पदार्थ एकान्ततः न नित्यरूप है, और न एकान्ततः अनित्य रूप ही हैं । क्योंकि एकान्त नित्य पक्ष में जिस प्रकार कालक्रम और देश क्रम के अभाव के कारण अर्थक्रियाकारिता नहीं बनती है, उसी प्रकार से वह एकान्त अनित्य पक्ष में भी नहीं बनती है । अतः प्रत्येक पदार्थ अनेकान्त की मुद्रा से मुद्रित है। इसलिए एकान्ततः किसी एक पक्ष का स्यावाद सिद्धान्त में समर्थन प्राप्त नहीं हो सकता है । अनेकान्त पक्ष का ही यहाँ समर्थन प्राप्त है । यही बात टीका के अविरोध पद द्वारा और "स्वयमर्थेभ्यो रोचितत्वात्" इस हेतु परक पद द्वारा स्पष्ट की गई है ॥६॥
तर-परस्परापेक्षवर्णानां निरपेक्ष समुदायः पदं तथाविधपदसमुदायश्च वाक्यम् ॥७॥
संस्कृत टीका-वर्णात्मक शब्द स्वरूप निरूप्य सम्प्रति पद वाक्यात्मक शब्द स्वरूपं परस्परापेक्ष वर्णानामित्यादिना निरूपयतिपरस्परापेक्षाणाम् उत्पद्यमान पदार्थ बोधऽन्योन्यसहकारितया स्थितानामकारादिवर्णानां निरपेक्षः पदान्तरवत्ति वर्णनिरपेक्षो यः समुदायस्तत्पदमित्युच्यते । यथा--"अ" "क" "रमा" इत्यादिषु पदेषु क्रमशो वर्णद्वयस्य अकारविसर्गरूपस्य, वर्णत्रयस्य ककार-अकार-विसर्ग रूपस्य, वर्णचतुष्टयस्य च रेफ-अकार-मकार-आकार-रूपस्य क्रमशो वासुदेव-प्रजापति-लक्ष्मी रूपस्य चार्थस्य बोधे परस्पर सहकारितया वर्तमानस्य निरपेक्षः-घटपटादि पदान्सरयतिघकारादि वर्णानामपेक्षारहितो यः समुदायः अक रमा इत्येवरूपो वर्णसंघातस्तत्पदमित्युच्यते एव तथाविधपदानां-परस्परा-पेक्षपदाना-निरपेक्षः वाक्यान्तर वतिपदापेक्षारहितो यः समुदायः संघातः तद्वाक्यमित्युच्यते यथा-"गौरस्ति नीलो घटोऽस्ति" इत्यादि, तथा च वाक्यार्थबोधे जायमाने परस्पर सहकारितया वर्तमानस्य क्रमशः गोपदस्य अस्तिपदस्य च, एवं नील पदस्य, घट पदस्थ अस्ति पदस्य च गोरस्तिस्व रूप वाक्यार्थ बोधे, नील घटस्यास्तित्वरूप वाक्यार्थ बोधे च परस्परापेक्षतया स्थितस्य पदद्वयात्मकस्य पदत्रयात्मकस्य च “घटोऽस्ति" इत्यादि वाक्यान्तर बसिपदादि पदनिरपेक्षतया बत्तमानस्य यः पदद्वय समुदाय पदत्रय समुदायश्च तद्वाक्यमित्युच्यते ॥७॥
सूत्रार्थ-परस्पर की अपेक्षावाले वर्षों का पदान्तरवर्ती वर्गों की अपेक्षा विना का जो समुदाय है वही पद का लक्षण है। तथा परस्पर की अपेक्षावाले पदों का पदान्तरवर्ती पदों की अपेक्षा विना का जो समुदाय है वह वाक्य का लक्षण है ।
हिन्दी व्याख्या-वर्णात्मक शब्द के स्वरूप का निरूपण करके अब सूत्रकार पदात्मक और वाक्यात्मक शब्द के स्वरूप का इस परस्परापेक्षवर्णानाम्" आदि सूत्र द्वारा निरूपण कर रहे हैं। इसमें यह समझाया गया है कि जब 'अः कः रमा" इन पदों का उच्चारण किया जाता है तो श्रोता को इन पदों के सुनने गर जो अः वासुदेव, कः ब्रह्मा और रमा-लक्ष्मीः इन अर्थों का बोध होता है सो उस बोध
१. आदीपमाब्योमसमस्वभावं स्माद्वादमुवानतिभेदि वस्तु ।
तन्नित्य मेयकमनित्यमन्यदितित्वदामाविषतां प्रलापाः।-स्याबादमध्जाम् ।।शा