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न्यायरत्न : म्याग्ररत्नावली टीका : प्रथम अध्याय, सूत्र १३ ही हो गया है। इसी तरह से पदार्थ का न्यूनवेदन, पदार्थ का अतिरिक्तवेदन, और सन्देहयुक्तवेदन ये सब वेदन प्रतिभातविपय के अव्यभिचारी नहीं होते हैं। इसीलिये पदार्थ का जो स्वरूप है, पदार्थ जिस स्वरूप से युक्त है उस पदार्थ को उसी रूप से जानने वाला ज्ञान ही प्रमाण माना गया है। जैसा सत्यरजत का ज्ञान । पदार्थ ज्ञान में प्रमाणता का कथन स्व को जानने की अपेक्षा से ही नहीं किया गया है, क्योंकि समस्त ही ज्ञान अपने स्वरूप के ज्ञाता होते हैं । पर जो पदार्थ जैसा है यदि ज्ञान ने उस पदार्थ को वैसा ही जामा है और जाना हुआ वह पदार्थ व्यवहार काल में वैसा ही प्राप्त होता है तो यही ज्ञान में प्रमाणता का ख्यापक है । इसी कारण प्रतिभातविषयाव्यभिचारित्व प्रामाण्य कहा गया है, इस लक्षण से हीन अप्रामाण्य होता है ।।१।। प्रमाण की उत्पत्ति और ज्ञप्ति का कथन
सूत्र-तदुत्पत्ती परत एव स्व निश्चये तु अभ्यासानभ्यासापेक्षया स्वतः परतश्चः ।।१३।।
सूत्रार्थ-यह अभी-अभी प्रकट कर दिया गया है कि ज्ञान में प्रमाणता एवं अप्रमाणता क्या है। इसकी उत्पत्ति और ज्ञप्ति के विषय में भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं । ज्ञान में प्रमाणता की उत्पत्ति स्वतः होती है तथा अग्रमाणता की उत्पत्ति परतः ही होती है—ोमी मान्यता मीमांसकों को है। सांख्य सिद्धान्त की मान्यता दोनों की उत्पत्ति स्वतः ही होती है, ऐसी है। जैन परम्परा प्रमाण और अप्रमाण की उत्पत्ति परतः ही होती है, ऐसी है और ऐमी ही मान्यता बौद्धों की भी है, तथा दोनों की शक्ति अभ्यास दशा में स्वतः और अनभ्यास दशा में परतः होती है । इसी सम्बन्ध में यह सूत्र कहा गया है।
संस्कृत टीका-ज्ञानगत प्रामाण्याप्रामाण्ये उत्पसौ परत एव. सप्तौ तु अभ्यासानभ्यासदशापेक्षया स्वतः परतः, ज्ञान जनक सामग्रितो भिन्न सामग्या जन्यत्वं परतरत्वं, ज्ञानजनकसामग्री मात्र जन्यत्वं स्वतस्त्वं । यदि ज्ञानगत प्रामाप्यं रक्षतराव इत्परमान श्यात तहि ज्ञानोत्पादक हेत्वनतिरिक्त जन्यत्वेन संशयादावपि प्रामाण्यं स्यात् यदि प्रमाणभूतं ज्ञानं विशिष्टं ज्ञानं, भवति लेनहि, अस्योत्पत्ती ज्ञान सामान्य सामन्यापेक्षया काचिद् विशिष्टा सामग्री एवजनिका मन्तव्या। यथा संशयादि ज्ञानान! जनिका सामग्री विशिष्टा मन्यते । अन्यथा प्रमाणाप्रमाण विभागाभावः स्यात्, ज्ञानगत प्रामाण्यस्य निश्चयस्तु अभ्यास दशायां स्वतः अनभ्यासदणायाम-अपरिचितस्थानापेक्षायां परतः ॥१३।।
हिन्दी व्याख्या-जिम कारणों मे ज्ञान उत्तान होता है, उन्हीं कारणों से ज्ञान में प्रमाणता का उत्पन होना इसी का नाम स्वतस्त्व है । यदि ऐसी बात मानी जावे तो फिर सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान में कोई अन्तर नहीं होना चाहिये । परन्तु अन्तर तो स्पष्ट है । अतः इससे यही मानना चाहिये कि ज्ञान में प्रमाणता या अप्रमाणता की उत्पत्ति परतः ही होती है। अर्थात् ज्ञान को उत्पन्न करने वाली जो सामग्री है, केवल वही सामग्री ज्ञान में प्रमाणता की जनक नहीं है। इससे विशिष्ट सामग्री ही प्रमाणता की जनक है। क्योंकि प्रमाणभूत ज्ञान और अप्रमाणभूत ज्ञान ये दो भिन्न-भिन्न ज्ञान हैं। अतः रक्त वस्त्र और शुभ्र वस्त्र की जनक सामग्री जैसी भिन्न-भिन्न होती है बैमी ही इनकी जनक सामग्री भी भिन्न-भिन्न ही होती है । जिस सामग्री ने-चक्षुरादि कारणों में ज्ञान को उत्पन्न किया है-उसी सामग्री ने उस शान में प्रमाणता को उत्पन्न कर दिया है ऐसी बात नहीं है। किन्तु चक्ष आदि इन्द्रियों की निर्मलतारूप जो भिन्न सामग्री है उसके द्वारा ही ज्ञान में प्रमाणता उत्पन्न हुई है। जिस प्रकार चक्ष रादि इन्द्रियों की अभिलत्तारूप कात्र कामलादि दोष ज्ञान में अप्रमाणता के जनक होते माने गये हैं उसी प्रकार से चक्षुरादिगत निर्मलता आदि गुण ज्ञान में प्रमाणता