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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ५२-५४
|७३ हिन्दी व्याख्या--एक मुहर्त के पहले रोहिणी का उदय नहीं हुआ है। क्योंकि अभी उत्तरफल्गुनी का उदय हो रहा है । यहाँ प्रतिषेध्य रोहिणी का उदय है। इसके साथ साक्षाद्विरुद्ध आर्द्रा नक्षत्र है, उसका उत्तरचारी पूर्वफल्गुनी का उदय है । इससे मुहूर्त पूर्व रोहिणी के उदय होने का अभाव अनुमित हो जाता है ।। ५२ ।।
सूत्र-(सप्तमी)--साध्यविरुद्ध - सहचरोलपधिर्यथाऽस्य मुनेमिथ्याजानं नास्ति सभ्यग्दर्शनोपलम्भात् ॥ ५३ ॥
संस्कृत टीका-अत्र प्रतिषेध्यं मिथ्याज्ञानरूपं साध्यम्, तेन सह साक्षाद्विरुद्धस्य सम्यग्ज्ञानस्य सहचारि सम्यग्दर्शनम् तत्सद्भावोपलब्ध्या मिथ्याज्ञानाभावस्यानुमितिर्जायते । मिथ्याज्ञानाभाव सम्यग्दर्शनयोः सहचरत्वात् ।
हिन्दी व्याख्या-सातवीं साध्यविरुद्ध सहचरोपलब्धि है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार से है-इस मुनि का ज्ञान मिथ्याज्ञान नहीं है क्योंकि इसमें सम्यग्दर्शन का सद्भाव है। यहाँ प्रतिपध्य मिथ्याज्ञान है । इसका साक्षाद्विरोधी सम्यग्ज्ञान है और उस सम्यग्ज्ञान का सहचारी सम्यग्दर्शन है। उसकी उपलब्धि इस मुनि में हो रही है। अतः इसके सद्भाव से उसमें मिथ्याज्ञान के अभाव की अनुमति की गई है क्योंकि मिथ्याज्ञानाभाव और सम्यग्दर्शन ये दोनों साथ-साथ ही रहते हैं ॥ ५३॥
सूत्र-प्रतिषेध्याविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधानुमिती सप्तविधा प्रतिषेच्याविरुद्धस्वभावध्यापक काय-कारण पूर्वोत्तर सहवरानुपलब्धि भेदात् ।। ५४ ।।
संस्कृत टीका-निषेधसाधिकानां प्रतिषेध्यविरुद्ध स्वभावोपलब्ध्यादीनां सप्तानां सोदाहरणं स्वरूपं प्रतिपाद्याधुना प्रतिषेध्याविरुद्धानुपलब्धेः सप्तविधत्वं लक्ष्यते तत्र प्रतिषेधात्मक साध्य प्रतियोगिना प्रतिषेध्येन सहाविरुद्धानां स्वभाव-व्यापक कार्य-कारण पूर्वचरोत्तरचर - महचगणां हेतुनामनुपलब्धिः प्रतिषेध्याविरुद्धानुपलब्धिः सा च प्रतिषेधान्नुमितो सप्तविधा भवति । तद्यथा-प्रतिषेध्याबिरुद्धस्वभावानुपलब्धिः १, प्रतिषेध्याविरुद्ध व्यापकानुपलब्धिः २, प्रतिषेध्याविरुद्ध कार्यानुपलब्धिः ३, प्रतिषेध्याविरुद्ध कारणानुपलब्धिः ४, प्रतिषेध्याविरुद्ध पूर्वचरानुपलब्धिः ५, प्रतिषेध्याविरुद्धोत्तरचरानुपलब्धिः ६, प्रतिषेध्याविरुद्धसहचरानुपलब्धिश्चेति एता सामुदाहरणामि वक्ष्यन्ते ।।
हिन्दी व्याख्या--यह पूर्व में प्रकट किया जा चुका है कि अनुपलब्धि रूप जो हेतु होता है, वह भी विधि साधक और प्रतिषेध साधक होता है । अनुपलब्धि मूल में दो प्रकार की होती है—अविरुद्धानुपलब्धि १, और विरुखानुपलब्धि २ । इनमें प्रतिषेध्य साध्य से अविरुद्ध हेतु की जहाँ अनुपलब्धि है बह प्रतिषेधसाधक होती है । यह प्रतिषेधलाधिका अविरुद्धानुपलब्धि सात प्रकार की कही गई है - जैसे प्रतिषेध्य से अविरुद्ध स्वभाव की अनुपलब्धि १, प्रतिषेध्य से अविरुद्ध व्यापक की अनुपलब्धि २, प्रतिषेध्य से अविरुद्ध कार्यरूप हेतु की अनुपलब्धि ३. प्रतिषेध्य साध्य से अविरुद्ध कारण की अनुपलब्धि ४, प्रनिषेध्य साध्य से अविरुद्ध पूर्ववर की अनुपलब्धि ५, प्रतिषेध्य साध्य से अविरुद्ध उत्तरचर की अनुपलब्धि ६, और प्रतिषेध्य साध्य से अविरुद्ध सहचर की अनुपलब्धि ७, इनके उदाहरण आगे कहे जाने वाले हैं ।। ५४ ॥
न्याय०टी० १०.