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चतुर्थ अध्याय
परोक्षप्रमाणस्य स्मरणादि भेदचतुष्टयं प्रतिपाद्य दानीम् आगमाख्यं पञ्चम प्रकारं प्रतिपादयितु माह
सूत्र-आप्तवाक्यजन्यमर्थज्ञानमागमः ॥ १ ॥
संस्कृत टीका-आप्तस्य वाक्यम्-~-आप्तवाक्यं तेन जन्यमर्थज्ञान जीवाजीवादि स्वरूपविषयक ज्ञानमागमः आगम प्रमाणमिति । अत्र आगम इति लक्ष्यम् अवशिष्टं तल्लक्षणम् । अत्रार्थ ज्ञानपदे केवलमुच्यमाने प्रत्यक्षेऽतिव्याप्तिस्तस्मादपि अर्थज्ञानप्रसूतेः अतस्तव्यावृत्यर्थं वाक्यजन्यमिति प्रोक्त-बाश्यजन्यमर्थज्ञानमागम इत्येतावति उध्यमाने रथ्यापुरुष वाक्यजन्यमपि ज्ञानमागमः स्यात् । अतस्तन्निवृत्त्यर्थम् आप्तेतिपदं प्रोक्तम् । आप्तवाक्यजन्यं ज्ञानमागम इत्येतावति प्रोक्त श्रयमाणादाप्तवाक्याज्जायमाने श्रावणप्रत्यक्ष लक्षणस्याति व्याप्तिः स्यावतः तत्परिहारार्थमर्थज्ञानमिति कथितम् । एवं निष्कंटक मिदं लक्षणमागमस्य ज्ञातव्यम् !
सूत्रार्थ परोक्ष प्रमाण के स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान इन भेदों का कथन करके अब पांचवें भेद आगम प्रमाण का कथन सूत्रकार करते हैं-आप्त के बाक्य से उत्पन्न जो ज्ञान होता है उसका नाम आगम है।
हिन्दी व्याख्या–आप्त पुरुष के वाक्य से-वचन से जो जीव अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान-बोध होता है, उस ज्ञान का नाम आगम है। यहाँ पर आगम यह लक्ष्य है, और शेष जो पद हैं वे उसके लक्षण हैं । लक्षण अन्य व्यावतक होता है। अतः अब यही स्पष्ट किया जाता है, कि इन विशेषणभूत पदों द्वारा किन का यहाँ पर व्यवच्छेद किया गया है । यदि अर्थज्ञान को आगम कहा जाता तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भी अर्थज्ञान होता है। अतः वे भी आगम प्रमाण के ही अन्तर्गत हो जाते और स्वतन्त्र प्रमाणभूत न रहते । इसलिये वे स्वतन्त्र प्रमाणभूत रहें, आगम प्रमाण में इनका अन्तर्भाव न हो इसीलिये इस आगम लक्षण में वाक्य वचन से जन्य जो अर्थज्ञान है वह आगम प्रमाण है, ऐमा कहा गया है। प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा जो अर्थज्ञान होता है वह वाक्यजन्य नहीं होता है। यदि इतना ही कह दिया जावे कि वाक्य से उत्पन्न हुआ अर्थज्ञान ही आगम है, तो फिर इच्छानुसार बोलने वाले ऐसे वैसे आदमी के वचनों द्वारा जो अर्धज्ञान होता है, वह भी आगम प्रमाण की कोटि में आ जावेगा। अतः वह आगम की कोटि में न आ सके इसके लिये वाक्य का विशेषण आप्तपद रखा गया है। आप्त के वाक्य से
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