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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ४
| ४१ सूत्र--मुखे सबोरक मुखयस्त्रिका बन्धनं श्रेष्ठं सावधकर्मपरिवर्बकत्वात् ।। ४ 11
संस्कृत टीका-जैनमुनीनां सदोरक मुखबस्त्रिका बन्धनं मुखे आवश्यकमित्युक्त्वाऽधुना तस्य श्रेष्ठत्व साधनाय 'मुखे सदोरक मुखवस्तिका बन्धनमित्यादि सूत्रमाह
प्राणिप्राणविधातादि सावध कर्म परिवर्जकत्व हेतुना सदोरक मुखवस्त्रिका बन्धनं स्वत एव श्रेष्ठं ज्ञायते । परन्तु व्यामोहवशतः कश्चियदि श्रेष्ठत्व नस्य नाङ्गीकरोति तदा कथं स सचेतनः स्यात्, कथमस्य सावध कर्म परिवर्जकसेति चेदुच्यते-सदोरक मुखवस्त्रिका धारणं विना भाषणे क्रियमाणे वायुकायिकादेर्जीवस्य विराधनाऽशक्य परिहारा भवति, तदा भाषायां सावद्यताम्गच्छत्ति, सदोरक मुन्द वस्त्रिका बन्धन द्वारा तु वायुकायादि जीव संरक्षणे भाषा निवद्या भवति । उक्तञ्च भगवती सूत्रे १६ शतके २ उद्देशे–“गोयमा ! जाहे णं सक्के देविदे देवराया सुहुमकायं अणि जूहित्ताणे भास भास इ ताहे णं सक्के देविदे देवराया सावज भासं भासइ, जाहे णं सक्के देविदे देवराग्रा सुहमकार्य णिहिताणं भासं भासद ताहे णं सबके देविदे देवराया असावज्जं भासं भासई" इत्यादि । अतः मदोरक मुखवस्त्रिका बन्धनमागमोक्तत्वात् श्रेष्ठमिति भावनीयम् ।
सूत्रार्थ-मुख पर सदोरक मुखवस्त्रिका का बांधना श्रेष्ठ है क्योंकि यह सावध कर्म का परिवर्जन कराने वाली है।
हिन्दी व्याख्या-जैन मुनियों को मुख पर सदोरक मुखव स्त्रिका का बांधना आवश्यक है. ऐसा कहकर अब सूत्रकार इसकी श्रेष्ठता का प्रतिपादन इस सूत्र द्वारा कर रहे हैं। इसमें यह समझाया गया है कि-सदोरक मुखभित्रका का मस्त्र र बाँधना श्रेष्ट इसलिये है कि इसके बांधने से प्राणियों के प्राणविधात आदि होने रूप जो साबद्ध कर्म हैं वे नहीं हो पाते हैं, उसके द्वारा होने से बच जाते हैं। यद्यपि देखा जाय तो सदोरक मुखवस्त्रिका का मुख पर बांधना स्वतः ही श्रेष्ठ है ऐसा ज्ञात होता है। परन्तु फिर भी कोई अपनी हठ से इस बात को स्वीकार नहीं करता है तो हम उसे समझदार प्राणी कैसे मान सकते हैं ? इस मुखवस्त्रिका के बन्धन द्वारा सावध कर्म की परिवर्जना कसे हो जाती है ? यदि कोई हमसे ऐसा पूछता है तो हम उसे बताते हैं-सदोरक मुखबस्त्रिका को मुह पर बांधे बिना भाषण करने पर वायुकायिक आदि जीवों की विराधना दुनिवार हो जाती है, उसे वह भाषणकर्ता रोक नहीं सकता है, इस स्थिति में भाषा में सावधता आती है। तथा मुखवस्त्रिका के बन्धन से बिहीन मुख में मशक मक्षिकादि जीवों का, संपातिम जीवों का एवं सचेतन उदकबिन्दुओं का प्रवेश होना कसे रोका जा सकता है। तथा जिस समय देशना आदि देना होता है, या खांसी आदि आती है, उस समय मुख की निकली हुई उष्णवायु से हो जाने वाली बाह्य वायुकायिकादि जीव विराधना कसे बचायी जा सकती है । तथा सचित्त रजोरेणु को मुख में जाने से कैसे रोका जा सकता है, तथा बोलते समय दूसरों के ऊपर पड़ते हुए थूक के लवों के स्पर्श से कैसे बचाया जा सकता है, इत्यादि यह सब कथन यहाँ उपलक्षण से जान लेना चाहिये । इसलिये निरखद्य भाषा के लिये, वचनगुप्ति के लिये, साधुटोग्न लिङ्ग के लिये, संपातिम जीवों की रक्षा के लिये, भाषा समिति के लिये, सचित्त रजोरेणु के प्रवेश को रोकने के लिये, एवं प्रमार्जना के लिये, मुखवस्त्रिका का मुख पर निरन्तर बांधना आवश्यक कर्म है, इसीलिये इसे श्रेष्ठ कहा गया है। भगवती सत्र में १६वें शतक में द्वितीय उद्देशक में ऐसा ही कहा गया है।।
है। इस तरह मूहपत्ति के बन्धन द्वारा वायुकायिकादि जीवों की रक्षा होती रहती है इसलिये इसे मह पर दोरे से निरन्तर बांधे रहना यह आगमोक्त मार्ग है। इसी से यह श्रेष्ठ है ।।४।। त्या० टी०६