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न्यायरत्न : न्यायरलाबली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ४१, ४२, ४३ सूत्र--पर्वतोऽयमग्निमान् धूमोपलम्मावित्ति द्वितीया ।। ४१ ॥
संस्कृत टीका-प्रथमा साध्याविरुद्ध व्याप्योपलब्धिः कथिता अधुना द्वितीया साध्याविरुद्ध कार्योपलब्धिः कथ्यते । पर्वतोऽयमग्निमानित्यादिना । एवं च साध्येन बलिना सह अविरुद्धस्य धूमरूप कार्यास्मक हेतोपलब्धिः साध्याविरुद्ध कार्योपलब्धिः एवमन्यदपि उदाहरणाम स्वयमुन्नेयम् ।
हिन्दी व्याख्या साध्याविरुद्ध व्याप्योपलब्धि का कथन करके अब सूत्रकार द्वितीय जो साध्याविरुद्ध कार्योपलब्धि है, उसका कथन करते हैं । इसमें यह समझाया गया है कि जो कार्यरूप हेतु अपने सास के साथ विस्त ही होता है, देसा वह अधिक कार्य हेतु अपने साध्य की सत्ता का गमक होता है। जैसे 'यह पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि धूमवाला है। यहाँ पर्वत पक्ष है, अग्निवाला है, यह साध्य है । और धूमबाला हेतु है । यहाँ धूम हेतु अपने साध्यरूप वह्नि का अविरुद्ध कार्य है। अतः अपने सद्भाव से वहाँ अग्नि का वह गमक होता है । इसी तरह से और भी इस द्वितीय उपलब्धि का उदाहरण स्वयं समझ लेना चाहिए ॥ ४१ ॥
सूत्र-अस्त्यत्र छाया छत्रोपलम्भादिति तृतीया ॥ ४२ ।।
संस्थत टोका-साध्याविरुद्ध कार्योंपलब्धेः स्वरूपं निरूप्य साध्याविरुद्ध कारणोपलब्धेः स्वरूपं निरूप्यते । "अस्त्यत्रछाया छत्रत्वादिति" । यत्र साध्येन सह अविरुखस्य कारणस्योपलब्धिर्भवति तत्रयेयं तृतीयोपलब्धिर्जायते यथा अस्मिन् प्रदेशे छाया अस्ति तदविरुद्धस्य छत्ररूप कारणस्योपलब्धेः, एवमेव "वृष्टिर्भविष्यत्यत्रोन्नत वारिवाहाबलोकमात्" इदमपि अस्यास्तृतीयोपलब्धेरुदाहरणं ज्ञातव्यम् । उन्नतवारिवाहावलोकनतो भविष्यवृष्टेरनुमितेर्भवनात् ।
हिन्दी व्याख्या-द्वितीय साध्याविरुद्ध कार्योपलब्धि का स्वरूप प्रकट करके अब इस सूत्र द्वारा तृतीय साध्याविरुद्ध कारणोपलब्धि का स्वरूप प्रकट किया जा रहा है। जहाँ पर साध्य से अविरुद्ध उसके कारण की उपलब्धि होती है । जैसे—यहाँ पर विवक्षित स्थान पर छाया है। क्योंकि उसका जो कारण छाता है उसकी उपलब्धि हो रही है। यहाँ पर 'अत्र' यह धर्मी है, छाया यह साध्य है और छाता यह हेतु है । यह हेतु साध्य की छाया का अविरुद्ध कारण है, और उसकी यहाँ उपलब्धि हो रही है । अतः इस हेतु से उस स्थान में छाया की अनुमिति होती है। इसी तरह उन्नत जल से भरे हुए मेघों के देखने से ऐसा अनुमान करना कि यहां पर बर्षा होगी यह साध्याविरुद्ध कारणोपलब्धिरूप हेतु का उदाहरण है ।। ४२ ॥
सूत्र-भविष्यति रोहिण्युषयः कृत्तिकोषयोपसम्भाविति चतुर्थी ।। ४३ ॥
संस्कृत टीका-साध्याविरुद्ध कारणोपलब्धः स्वरूपं निरुप्याधुना साध्याविरुद्ध पूर्वचरोपलब्धेः स्वरूपं लक्षयितुमाछ-'भविष्यति रोहिण्युदयः' इत्यादि, एवं च साध्येन सहाविरुद्धस्य पूर्वचरस्य हेतोरुपलब्धिः साध्याविरुद्ध पूर्वचरोपलब्धि चतुर्थी मुहूर्तान्ते रोहिण्युदयो भविष्यति अधुना कृत्तिका नक्षत्रोदयोपलम्भादित्यत्र साध्येन भविष्यत्कालिक रोहिणी नक्षत्रोदयेन सह अविरुद्धस्य कृत्तिकानक्षत्रोदयरूपस्य हेतोपल
ध्या भविष्यत्कालिक रोहिणी नक्षत्रोदयानुमितिर्भवति पूर्वचरस्य कृत्तिकोदयस्य न पूर्वोक्त व्याप्यस्वरूप स्वभावेऽन्तर्भावः, नापि कार्येऽन्तर्भावः, नापि च कारणेऽन्तर्भावः संभवति तस्य पूर्वचरस्य कृत्तिकोदयस्य रोहिण्युदयस्य च परस्परभिन्नत्वात् रोहिण्युदयकार्यत्वाभावात्, तस्य रोहिण्युदयकारणत्वाभावाच्चेतिभावः॥ ४३ ।।