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ग्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ४६ तत्र सत्त्वात् तयोः परस्पर भिन्नत्वेन तादात्म्या संभवात् स्वभाव हेतो नान्तर्भावः, एवं सव्येतर विषाणयोरिव रूपविशेष रसविशेषयोयुगपदेव जायमानत्वेन कार्यकारणयोरपि नान्तर्भावः तदुक्तमन्यत्रापिकार्यहेतुरयनेष्टः समान समयत्वतः स्वातन्त्र्येण व्यवस्थानाद्वामदक्षिण शृङ्गवत् ।
सूत्रार्थ-इस आम के फल में रूप विशेष है क्योंकि इसका जो यह रस मैं चख रहा हूँ बह विशेष प्रकार का है । यह अविरुद्ध सहयोपलब्धि का उदाहरण है।
हिन्दी व्याख्या--साध्याविरुद्ध उत्तरचरोपलब्धि के स्वरूप का प्रतिपादन करके अब साध्याविरुद्ध सहचरोपलब्धि का स्वरूप कहा जाता है । इस आम में रूपविशेष है; क्योंकि इसका आस्वाद्यमान जो रस है वह विशेष प्रकार का है। यहाँ पर साध्य रूपविणेष है । उस विशेष के साथ अविरुद्ध समास्वाद्यमान रस विशेष है । और ग्रह हेतु है, साध्य के साथ इसका सहचर सम्बन्ध है। गाय के जैसे दाहिने और बायें दोनों शग एक साथ होते हैं, उनमें कार्यकारण सम्बन्ध नहीं होता है । प्रत्युत सहचर सम्बन्ध ही होता है । इसी प्रकार से रूप रसादि का सम्बन्ध होता है। इस सम्बन्ध में कार्यकारणता नहीं होती है । अतः रात्रि में प्रकाशाभात्र में चखे गये रसविशेष के द्वारा उसके सहचारी रूप की अनुमिति हो जाती है । यह सहन र हेतु स्वतन्त्र हेतु है। इसका भी अन्तर्भाय पूर्वोक्त साध्य अविरुद्ध व्याप्य हेतु में, साध्याविरुद्ध कार्य हेतु में और साच्याविरुद्ध कारण हेतु में एवं साध्याविरुद्ध पूर्वचर तथा उत्तरचर हेतु में नहीं होता है । साध्याविरुद्ध व्या व हेतु में इसका अन्तर्भाव इस कारण से नहीं होता है कि रूप और रस में तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है और परस्पर में ये दोनों स्वतन्त्र हैं । अतः न कोई आपस में किसी का कार्य है, और न कारण है । इसलिए कार्य कारण रूप हेतुओं में इसका अन्तर्भाव नहीं होता है। इस प्रकार से यह स्वतन्त्र हो हेतु है । यही बात अन्यत्र भी कही गई है-समान समय वाले होने से संथा स्वतन्त्र रूप से व्यवस्थित होने से वाम दक्षिण गोङ्ग की तरह सहचर हेतु स्वतन्त्र ही हेतु है। यह कार्यादिरूप हेतु नहीं है ।। ४५ ।।
सूत्र-साध्यविरुद्धोपलब्धिः प्रतिषेधानुमितो सप्तविद्या विरुद्ध स्वभाव-ज्याप्याद्य पलब्धि भेदात् ॥ ४६॥
संस्कृत टोका---पविधानामपि साध्याविरुद्धोपलब्धीना स्वरूपं प्रतिपाद्य अधुनोपलब्धे द्वितीय भेदं प्रतिपादयितुं प्रक्रम्यते तत्रसाध्येन सह विरुद्धस्य हेतोरुपलब्धिः स्वसाध्य प्रतिषेधे साध्यविरुद्ध स्वभाव
-कार्य-कारण-पूर्वोत्तर-सहचरोपलब्धि भेदात् सप्त विधा जायते । एवञ्च साध्य विरुद्ध स्वभावोपलाधिः १. माध्यविरुद्ध व्याप्योपलब्धिः २, साध्यविरुद्ध कार्योपलब्धिः ३, साध्यविरुद्ध कारणोपलब्धिः ४, साध्यविरुद्ध पूर्वचरोपलब्धिः ५, साध्य विरुद्धोत्तरचरोपलब्धिः ६, साध्यविरुद्ध सहचरोपलब्धिश्चेति ७, तन्नामानि, तत्र प्रतिषेध्यस्य साध्यस्य स्वभावेन सह साक्षाद् विरुद्धस्य हेतोरुपलब्धिः साध्यविरुद्ध स्वभावोपलब्धिः साध्येन प्रतिषेध्येन सह साक्षाद्विरुद्ध व्याप्य रूप हेतोरुपलब्धिः साध्यविरुद्ध व्याप्योपलब्धिः, प्रतिषेध्येन साध्येन मह साक्षाद्विरुद्ध कार्य रूप हेतोरुपलब्धिः साध्यविरुद्ध कार्योपलब्धिः, प्रतिषेध्येन साध्येन सह माक्षाद्विरुद्धस्प कारणरूप हतोरुपलब्धिः साध्यबिरुद्ध कारणोपलब्धिः, प्रतिषेध्येन साध्येन सह साक्षा
१, परीक्षाभुन्धे "विरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेथे तथा" अनेन सूत्रेणास्या उपलबधेः प्रष्ट भेवाः प्रतिपादिताः सन्ति ।