Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 169
________________ न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ४४-४५ हिन्दी व्याख्या-इस प्रकार से साध्याविरुद्ध पूर्वचरोपलब्धि का स्वरूपनिरूपण कर अब सूत्रकार साध्याविरुद्ध पूर्वचरोपलब्धि का स्वरूप निरूपण करते हैं । साध्य से अविरुद्ध उसके पूर्वघर हेतु की जो उपलब्धि है । एक मुहूर्त के बाद रोहिणी नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि अभी कृत्तिका नक्षत्र का उदय हो रहा है । यहाँ साध्य आगे उदय होने वाले रोहिणी नक्षत्र के उदय के साथ अविरुद्ध हेतु कृत्तिका नक्षत्र का उदय है और उसकी वर्तमान में उपलब्धि हो रही है। ऐसा नियम है, कि कृत्तिका नक्षत्र के उदय के एक मुहूर्त बाद नियम से रोहिणी का उदय होता है। अतः इसके उदय से रोहिणी के उदय की अनुमिति होती है । इस पूर्वचर हेतु का अन्तर्भाव न साध्याविरुद्ध व्याप्योपलब्धि में होता है, न साध्याविरुद्ध कार्योपलब्धि में होता है और न साध्याविरुद्ध कारणोपलब्धि में होता है। क्योंकि जहाँ कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध होता है वहीं पर हेतु साध्याविरुद्ध व्याप्योपलब्धि रूप होता है। इसी तरह जिनमें कार्य कारण भाव सम्बन्ध रहता है वहाँ पर हेतु साध्याविरुद्ध कार्योपलब्धिरूप या साध्याविरुद्ध कारणोपलधिरूप हेतू होता है। रोहिणी नक्षत्र और कृत्तिका नक्षत्र में आपस में न तादात्म्य सम्बन्ध है और न कार्य कारण भाव सम्बन्ध है । इसलिए यह हेतु इन सबसे भिन्न है ॥ ४३ ॥ सूत्र-उदगान्मुहूर्तात्पूर्व पुनर्वतु पुष्योदयोपलम्भादिति पञ्चमी ।। ४४ ।। संस्कृत टीका-साध्याविरुद्ध पूर्वचरोपलब्धि स्वरूपं निरूप्याधुना पञ्चम्याः साध्याविरुद्धोत्तरचरोपलब्धेः स्वरूप निरूपयितुमाह-"उदगान्मुहर्तात् पूर्वम्" इत्यादि, एवं च साध्येन सह अविरुद्धस्य उत्तरचरस्य हेतोरूपलब्धिः साध्याविरुद्धोत्तरचरोपलब्धिः, मुहूर्त पूर्वातीतकालिक पुनर्वसूदयेन सहाविरुद्धस्यो. त्तरचरस्य पुष्योदयस्य हेतोरुपलम्भात् मुहूर्त पूर्वातीतकालिक पुनर्वसूदयानुमिति भवतीति भावः । एवमन्यदपि स्वयमुन्न यम् । सूत्रार्थ-एक मुहत्तं के पहले पुनर्वसु नक्षत्र का उदय हो चुका है क्योंकि अभी पुष्य नक्षत्र का उदय हो रहा है। यह पांचवीं साध्याविरुद्ध उत्तरचरोपलब्धि का उदाहरण है । हिन्दी थ्याख्या साध्याविरुद्ध पूर्वचरोपलब्धि का स्वरूप कहकर अब साध्याविरुद्ध उत्तरचरोपलब्धि का स्वरूप-"उदगान्मुहूर्तात्पूर्वम्' इत्यादि सूत्र द्वारा प्रकट किया जा रहा है । एक मुहूर्त के पहले पुनर्वसु नक्षत्र का उदय हो चुका है क्योंकि अभी पुष्य नक्षत्र का उदय हो रहा है । यहाँ साध्य पुनर्वसु नक्षत्र का उदय है । उसका अविरुद्ध उत्तरचर पुष्य नक्षत्र का उदय है । उसकी अभी उपलब्धि हो रही है-इससे एक मुहूत पहले पुनर्वसु नक्षत्र का उदय हो चुका है ऐसी अनुमिति होती है। इसी प्रकार से और भी उदाहरण इस सम्बन्ध में जान लेना चाहिए ।। ४४ ।। सूत्र---अस्मिम् सहकारफले रूपविशेषोऽस्ति समास्वायमान-रविशेषाविति साध्याविरुद्ध सहचरोपसरिधः ।। ४५ ॥ संस्कृत टीका–पञ्चम्याः साध्याविरुद्धोतरचरोगलब्धेः स्वरूपं निरूप्याधुना षष्ट्याः साध्याविरुद्ध सहचरोपलब्धेः स्वरूपं लक्षयितुमाह-"अस्मिन् सहकार फले' इत्यादि । एवञ्च साध्येन महाविरुद्धस्य सहचरस्य हेतोरुपलब्धिः साध्याविरुद्ध सहचरोपलब्धि यद्यथा-अम्मिन् महकार फले रूप विशेपोऽस्ति समास्वाद्यमान रस विशेषादित्यत्र साध्येन रूप विशेषण सह अविरुद्धस्य महचरस्य समास्वाद्यमान रस विशेषस्य हेतोरुपलब्ध्या सहकार फल विशेष रूप बिशेषानुमितिर्भवति एतस्यापि सहचरस्य हेतोः स्वभावे, कार्ये, कारणे पूर्वचरे उत्तरचरे वा हेतो नान्तर्भावः सम्भवति । रूप विशेषपार्थक्येनैव रस विशेषस्य

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