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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीमा : तृतीय अध्याय, सूत्र ११ पर ही बार-बार देखा है सर्वत्र निकाल में नहीं देखा है । परन्तु इस तरह से जो वह व्याप्ति ज्ञान संपादित कर लेता है, वही तर्क है। तर्क ही व्याप्ति ज्ञान में साधकतम होता है, अन्य प्रत्यक्षादि नहीं।
प्रश्न-भले ही सामान्य प्रत्यक्ष व्याप्ति को विषय करने वाला न हो परन्तु विशिष्ट प्रत्यक्ष तो व्याप्ति को विषय करने में समर्थ हो सकता है । . जैसे--सर्वप्रथम द्रष्टा ने धूम और अग्नि को एक साथ महानस आदि में देखा, फिर इसी तरह से उसने बार-बार धूम और अग्नि को साथ-साथ रहते देवा । इनमें ये सब प्रत्यक्ष धूम और अग्नि की सार्वत्रिक एवं सार्वकालिक व्याप्ति को ग्रहण करने वाले भले ही न हो-परन्तु ज्ञो अन्तिम प्रत्यक्ष पूर्व पूर्वानुभूत अग्नि के स्मरण से और पूर्वापर के अनुसन्धान रूप प्रत्यभिज्ञान से सहवात है वह तो व्याप्ति को ग्रहण कर लेगा। फिर इसके लिये तर्क को स्वतन्त्र रूप में प्रमाण मानने की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर-शङ्का तो ठीक है। पर जब यह बात पहले प्रकट की जा चुकी है कि जो जिसका अविषय है उसमें उसकी सहकारिता मिल जाने पर भी प्रवृत्ति नहीं होती है। तब यहाँ प्रत्यक्ष ही जब सार्वत्रिक और सार्वकालिक व्याप्ति को ग्रहण करने में स्वभावतः अशक्त है। तब वह स्मरण और प्रत्यभिज्ञान से सहकृत होने पर भी उसे कसे ग्रह्ण कर सकेगा अर्थात् नहीं ग्रहण कर सकेगा । अतः व्याप्ति के जानने में साधकतम तर्क ही है, ऐसा मानना चाहिये । यही बात “नान्यत्" पद से सूचित की गई है ॥ १० ॥
सूत्र-साध्या विनाभावि लिङ्गजं ज्ञानमनुमानम् ।। ११ ॥
संस्कृत टीका-पाध्याविनामादिको ज्ञापमानामावलि जाज्जायमानं ज्ञानमनुमानम् । अत्रानुमानमिति लक्ष्य निर्देशस्तस्य प्रसिद्धतयाऽनूद्यस्वात्. साध्याविनाभाविलिङ्गजमिति लक्षण निर्देशः तस्या प्रसिद्धतया विधेयत्वात्, तथा च-अनु-लिङ्ग-ग्रहण साध्यसाधन व्याप्ति स्मरणात्-पश्चात्, मीयतेऽर्थोऽनुमेयपावकादि येन ज्ञानेन तदनुमानमिति ! साधनमर्हतीति साधयितुमिष्टः शक्थो वा साध्योऽनुमेयः पावकादिः परोक्षभूतार्थः, विना भवतीति विनामुन बिनाभु इति अबिनाभु लिङ्गयते-गाम्यतेऽर्थोऽनेनेति लिङ्गम्-साधनम् हेतुरिति यावत् साध्यं त्यक्त्वा यत्र भवति साध्ये सत्येव भवति इति साध्याबिनाभावि एतादृशं पल्लिङ्गं तत् साध्याविनाभावि लिङ्ग तेन जायते इति साध्याविनाभावि लिङ्गज, ईदृशं ज्ञानमनुमानमिति ।
सुत्रार्थ-साध्य के साथ अविनामाघ सम्बाध रहने वाले लिंग से जो साध्य का ज्ञान होता है उसका नाम अनुमान है।
हिन्दी व्याख्या--साध्य के बिना नहीं होने वाले--किन्तु साध्य के सद्भाव में ही होने वाले ऐसे लिंग-साधन से जो कि ज्ञायमान होता है साध्य का जो कि परोक्षभूत होता है, ज्ञान ही अनुमान है। यहाँ अनुमान यह लक्ष्य है। क्योंकि वह प्रसिद्ध है, तथा "साध्य के विना न होने वाले लिग से उत्पन्न होने वाला" यह लक्षण है। क्योंकि अप्रसिद्ध होने से यह विधेय है। लिंग ग्रहण और साध्य साधन की व्याप्ति का स्मरण इन दोनों के अनन्तर हुए जिस ज्ञान के द्वारा अनुमेगरूप अग्नि आदि पदार्थ जाना जाता है, वह अनुमान है। साध्य वही होता है जो सिद्ध करने गोग्य होता है या 'साधयितुम्' इष्ट या शक्य होता है । साध्य का ही दूसरा नाम अनुमेय है । यह साध्य अनुमाता के परोक्ष होता है, जो साध्य के बिना नहीं होत. है, किन्तु साध्य के सद्भाव में ही होता है। उसका नाम साध्याविनाभावी है। ऐसा साध्याविनाभावी साधन-हेतु हो अपने साध्य का गमक होता है । इसी । नाम अनुमान है ।। ११ ॥