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न्यायरत्न : न्यायरामावली टीका : सूतीय अध्याय, सूत्र, २४
रूप हेतु है। क्योंकि अन्यथा शब्द का अर्थ है साध्य का अभाव, और अनुपपत्ति शब्द का अर्थ है धूम का नहीं होना 1 इस तरह साध्य के अभाव में हेतु का नहीं होना यही अन्यथानुपपत्ति है । इन दोनों का प्रयोग "पर्वतोऽयम् अग्निमात् तथोपपत्तः अन्यथाऽनुपपत्तेः" इस तरह से एक साथ नहीं करना चाहिए । क्योंकि किसी एक ही तथोपपत्तिरूप या अन्यथाऽनुपपत्तिरूप हेतु के प्रयोग से ही साध्य की सिद्धि हो जाती है। अतः द्वितीय हेतु का प्रयोग एक साध्य की सिद्धि में अकिब्धिरकर हो जाता है। जहाँ हेतु पद में "तथोपपति" इस प्रकार के शब्द का प्रयोग किया जावे जैसे "पर्वतोऽयं वह्निमान् तथोपपत्तेः" यह तथोपपत्ति रूप हेतु का प्रयोग है और जहाँ पर हेतु के स्थान में "अन्यथानुपपत्तेः" ऐसे शब्द का प्रयोग किया जावे वह अन्यथाऽनुपपत्तिरूप हेतु का प्रयोग है । तथोपपत्तिरूप हेतु अन्वयरूप और अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु व्यतिरेकरूप होता है। इस तरह तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति इन हेतुप्रयोगों द्वारा अन्वय और व्यतिरेक का ही शब्दान्तर से प्रतिपादन हुआ जानना चाहिये ॥ २३ ॥
सत्र-पक्षसाधन एवानुमानाङ ।। २४ ॥
संस्कृत टीका--अवधारणपरेण एवकारेणोदाहरणादिकमनुमानांगनेति सूचितं भवति । पक्ष शब्देनात्र धर्ममि समुदाय रूपा प्रतिज्ञोक्ता । साध्याविनाभावि हेतुः साधनम् । व्युत्पन्नश्रोतुस्तावन्मात्रेगैवानुमित्युदयात् पक्ष साधने व एवानुमानांगे, एतेन परार्थीनुमाने यदन्यस्यंगता पञ्चांगता चा प्रोक्ता तनिरस्ता प्रतिज्ञा हेतुप्रयोग मात्रेणवोदाहरणादि प्रतिपाद्यस्यार्थस्य गम्यमानस्य व्युत्पन्नेन ज्ञातुं शक्यत्वात् न चैवं प्रस्तावादिना व्युत्पन्नेन ज्ञातुं शक्यत्वात् प्रतिशान्तर्भावी पक्षोऽपि न प्रयोक्तव्य इतिवाच्यम् हेतु मात्र प्रयोगे व्युत्पन्नस्थापि साध्याधार सन्देहा निवृत्तः, तस्मान्नियमतः प्रतिज्ञान्तर्गतः पक्षः प्रयोक्तव्य इति ।
सूत्रार्य-पक्ष-प्रतिज्ञा और हेतु-माधन ये दो ही अनुमान के अंग हैं।
हिन्दी व्याख्या यहाँ सूत्र में जो "एव" पद दिया गया है, उससे यह बात प्रकट की गई है कि पक्ष-प्रतिज्ञा और हेतु-साधन ये दो ही अनुमान के अङ्ग--अवयव है। इससे यह सूचित होता है कि उदाहरण, उपनय और निगमन ये अनुमान के अंग नहीं हैं । पक्ष शब्द से यद्यपि साध्य का आधारभूत पर्वतादि रूप स्थान कहा जाता है। परन्तु यहाँ पर अनुमानांग के विचार में धर्म साध्य और धर्मी पक्षदोनों का समुदाय ही पक्ष शब्द से गृहीत हुआ है । इस तरह धर्म धर्मी की समुदाय रूप प्रतिज्ञा होती है। जैसे "पर्वतोऽयं वह्निमाद" यह प्रतिज्ञा है । साध्य के साथ जो अविनाभावी होता है वह साधन है। जैसे "धूमात्" यह साधन है । अनुमान के ये दो ही अंग-अवयव–परार्थानुमान की अपेक्षा इसलिये माने गये है कि व्युत्पन्न श्रोता को इन दोनों अवयवों के सुनने मात्र से अनुमिति का उदय हो जाता है । इस प्रकार से परार्थानुमान में अंगद्वय का कथन से जो किन्हीं-किन्हीं अन्य दार्शनिकों ने इसके तीन अंग, चार अंग या पाँच अंग माने हैं वह मान्यता निरस्त हो जाती है। क्योंकि उदाहरणादि द्वारा--उदाहरण, उपनय
१. अनयोरन्यतरप्रयोगेणष साध्यप्रतिपत्ती द्वितीय प्रयोगपैकत्रानुपयोग इति ।--स्याद्वादरलाकर सूष ३३ पृ०५६० ।
अनयो हेतु प्रयोगयोरुस्सिर्वचिभ्यमात्रम्-न्यायदीपिका पृ० २२
नानयोस्तात्पर्य भेदः।--प्रमाणमीमांसा सूत्र ५१०५०। २. प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण ये तीन अंग अनुमान के सांख्यों ने माने हैं, इनमें उपनय को मिलाकर चार अंग भीमांसकों
ने माने हैं, इनमें निगमन को मिलाकर पांच अंग नंयायिकों ने माने हैं।