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न्यायरल : न्यायरत्नावलो टीका : तृतीय अध्याय, भूत्र २६-२७ यह शब्दावि द्वारा दूसरों को समझाने का उपाय दश अवयव वाला साधन कहा गया है । पक्ष आदि पांच अवयव और पक्ष शुद्धि, हेतु शुद्धि आदि पाँच उनकी शुद्धियाँ । इनमें व्युत्पन्न तीव्र बुद्धि शिष्य की अपेक्षा प्रतिज्ञा और हेतु का ही प्रयोग करना पर्याप्त कहा गया है क्योंकि इतने मात्र कहने से ही वह व्युत्पन्न शिष्टम शेष उदाहरणादिकों को सोच लेता है। तथा जो व्युत्पन्न शिष्य इसकी अपेक्षा भी परिकर्मित मतित्राला है तो वह केवल हेतु के श्रवण मात्र से ही शेष अवयवों को समझ लेता है । पक्ष का ज्ञान उसे हो जाता है। दृष्टान्त की याद उसे आ जाती है। साध्य साधन के अविनाभाव सम्बन्ध को ग्रहण करने वाला तर्क उसके स्मृति पथ में आजाता है। उपनय और निगमन को यह जान लेता है। ऐसे परिमित मति बाले शिष्य की अपेक्षा केवल एक हेतु का ही प्रयोग करना बतलाया गया है, परन्तु जो प्रतिपाद्य पक्ष आदि के निर्णय से अभी तक अनभिज्ञ बना हुआ है तब वह केवल हेतु के प्रयोग मात्र से तो पक्षादि का निर्णायक या ज्ञाता हो नहीं सकता है उसे समझाने के लिये यथायोग्य रूप से इन प्रतिज्ञादि पांचों अवयवों का प्रयोग करके उसे इनका ज्ञान कराया जाता है। साध्याविनाभावी लिंग होता है यह भी उसे समझाया जाता है । इनके अविनाभाव का निश्चय कराने के लिये उसे दृष्टान्त का प्रदर्शन कराया जाता है। फिर धीरे-धीरे उसे व्याप्तिग्राहक तर्क का ज्ञान कराया जाता है। इससे वह उपनय और निगमन के प्रयोग करने में त्रुटि नहीं कर पाता है । नहीं तो वह उपनय के स्थान में निगमन
और निगमन के स्थान में उपनय का प्रयोग कर उनके सम्बन्ध में अज्ञानी बना रहता है। इसी लिये मन्द मति वाले शिष्य की अपेक्षा इन प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण आदि पाँचों अवयवों का प्रयोग भी संगत माना गया है। इसी हार्द अभिप्राय को हृदय में रखकर इस सूत्र की रचना की गई है। इस हार्द से यह फलित होता है कि मन्द बुद्धि वाले, तीव्र बुद्धि वाले और तीव्रतम बुद्धि वाले ऐसे तीन प्रकार के प्रतिपाद्य होते हैं, और इन्हीं की अपेक्षा परार्थानुमान रूप कथाएँ भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की होती हैं। जो कथा केवल तीव्रतम बुद्धि वाले प्रतिपाद्य के साथ की जाती है उसमें केवल एक हेतु का ही प्रयोग किया जाता है । ऐसी यह कथा जघन्य कथा है। जो कथा तीन बुद्धि वाले शिष्यादि के साथ की जाती है उसमें प्रतिज्ञादि दो अवययों का कथन किया जाता है वह मध्यमा कथा है और जिसमें मन्द बुद्धि वाले शिष्यों को समझाने के लिये पांच अवयवों का एवं उनकी शुद्धियों का कथन किया जाता है बह कथा उत्कृष्ट कथा है ॥२५॥
सूत्र-साध्यधर्माधारः पक्षः ॥ २६ ॥
संस्कृत टीका-साधयितुमिष्टं साध्यम् । साध्यरूपो धर्मः-साध्यधर्म:--अग्न्यादिः, तस्याधारःस्थान पक्षः धर्मीति नामान्तरम् ।
सूत्रार्थ-साध्य-धर्म का जो आधार होता है उसी का नाम है पक्ष । जैसे—"पर्वतोऽयं वह्निमान्" इस प्रतिज्ञा वाक्य में वह्निरूप साध्य धर्म का आधार पर्वत है ! इसलिए बही पक्ष कहलाता है।
सूत्र--धर्ममिसमुदायरूप पक्षस्य प्रतिपावनं प्रतिज्ञा यथा-पर्वतोऽयमग्निमानिति प्रतिज्ञा ॥२७॥
सूत्रार्थः धर्म-अग्नि, और धर्मी-पक्ष--इन दोनों का एक साथ कहना इसका नाम प्रतिज्ञा है। १. अन्यथाऽनुपपत्त्येक लक्षणं लिङ्गमिष्यते ।
प्रयोग परिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः ॥२॥ ----स्या० २०१० ५६५