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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र १
!३६ भगवन्तों द्वारा अर्थतः उपविष्ट हुए हैं अतः इनकी अनादिता से इनका सेवन करने वाले--इन्हें ग्रहण करने वाले–इनमें वसने शले-जो भी मुनिजन हैं वे सब ही स्थानकवासी हैं। इस तरह यह स्थानकवासित्व अनादिकालिक होने से प्रमाणभूत ही है क्योंकि अर्थ रूप आगम तीर्थङ्करोपदिष्ट हैं । अतः इसकी आराधनाकरने वाले जो इसके कर्ता हैं वे भी स्थानकवासी होने से प्रमाणभूत हैं और उनकी प्रमाणता से उनके वचनों में प्रमाणता है। अतः इस प्रकार के कथन से इसके निर्माता ने अपने वचनों में अप्रमाणता की शङ्का लो निवारण कर लिया है।
प्रान-अपने वचनों में प्रमाणता की यह बात तो पहले ही कहनी थी यहाँ पर कहने की आबश्यकता क्यों हुई ?
उत्तर-कोई भी बात प्रकरण के अनुसार यदि कही जाती है तो वह ठीक जचती है और ग्राह्य होती है, अप्रकरण के अनुसार नहीं । यहाँ पर परोक्ष प्रमाण का प्रकरण अवसर प्राप्त है और उसी के अन्तर्गत अनुमान का प्रकरण है । अतः इस अनुमानस'चक बात को यहीं पर कहना श्रेयस्कर है इसीलिये इसकी आवश्यकता हुई है।
प्रश्न- प्रत्यक्ष के प्रकरण के अवसर में यदि इस बात को कहा जाता तो क्या हानि थी?
उत्सर-प्रत्यक्ष के प्रकरण में तो सांच्यवहारिक और पारमार्थिक प्रत्यक्षों का वर्णन अभीष्ट था । उनसे स्थानकवासित्व साध्य की सिद्धि तो हो नहीं सकती थी क्योंकि साध्य तो परोक्ष ही होता है और परोक्ष साध्य को सिद्ध करने के लिये अनुमान प्रयुक्त होता है । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष स्थानकवासिन्न को ग्रहण कर नहीं सकता क्योंकि वह उसका अविषय है । रही पारमार्थिक प्रत्यक्ष की बात सो उन्हीं पारमार्थिक प्रत्यक्ष वालों ने इस माध्य को अपने प्रत्यक्ष ज्ञान का विषयभूत बनाकर हम संसारी जीवों को इसमें वसन आदि का उपदेश एवं आदेश दिया है।
__ इस तरह स्थानकवासित्व में अनादिता का प्रतिपादन करके अव सूत्रकार उन्हीं २० अनादिकालीन स्थानों को नामोल्लेखपूर्वक प्रकट करते हैं- अहंद्गुणोत्कीनन (१), सिद्धगुणोंकीर्तन (२), प्रवचनगुणोत्कीर्तन (३), गुणवद्गुरुगुणोत्कीर्तन (४), स्थविरगुणोत्कीर्तन (५), बहश्रतगुणोत्कीर्तन (६), तपस्विगुणोत्कीर्तन (७), तथा--अर्हन्तादि ७ के ज्ञान में बारम्बार निरन्तर उपयोग रखना (८), दर्शनविशुद्धि (६), गुरुदेवादि विषयक बिनय (१०), उभयकाल आवश्यक करना (११), निरतिचार शीलव्रतों का पालना बत-प्रत्याख्यान का निर्मल पालना (१२), क्षण लव आदि कालों में प्रमाद को छोड़कर शुभ ध्यान करना (१३), बारह प्रकार के तप का पालन करना (१४), अभयदान देना-सुपात्रदान देना (१५), आचार्यादि की सेवा-शुश्च षा करना (१६), समाधि-सर्वजीवों को सुखी करने का भाव रखना (१७), अपूर्व ज्ञान का ग्रहण और उसके साधकों-शास्त्रों का अध्ययन करना (१८), श्र तभक्ति-जिनोक्त आगम में परम अनुराग रखना (१६), प्रवचन प्रभावना-अनेक भव्यों को दीक्षा देना, जिनशासन की महिमा वृद्धिगत करना, जीवों को जिनशासन का रसिक बनाना, मिथ्यात्वरूपी तिमिर का निवारण करना, एवं चरण सत्तरी और करण सत्तरी की शरण में रहता (२०) । इस प्रकार से ये २० स्थान हैं । साधुजन इन २० स्थानकों में ही अनादिकाल से असते चले आ रहे हैं । अतः इनमें स्थानकवासिता अनादिकाल से है । यह बात सिद्ध होती है ॥१॥ १. वक्त : प्रामाण्यात वचसि प्रामाण्यम् ।