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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : द्वितीय अध्याय, सूत्र १८
|३७ सूधर्थ-कवलाहारी होने से अर्हन्त परमात्मा में असर्वज्ञता नहीं आती है क्योंकि कवलाहार और सर्वशता इन दोनों का परस्पर में कोई विरोध नहीं है ।
हिन्दी व्याख्या--दिगम्बर सम्प्रदाय वाले अहंन्त परमात्मा को कवलाहारी नहीं मानते हैं। उनका इस सम्बन्ध में ऐसा कहना है कि केवली छमस्थजनों की अपेक्षा विजातीय हैं अतः वे केवलज्ञानी होने पर भोजन नहीं करते है। यदि य कंवलज्ञानी होने पर भोजन करते हैं तो फिर उनमें छद्मस्थजनों की अपेक्षा विजातीयता नहीं आती है, अथवा वे केवली नहीं रहते हैं। इस तरह के उनके कथन का निरसन करने के लिये सूत्रकार ने यह सूत्र कहा है। इसके द्वारा यह समझाया गया है, कि केवलज्ञानी अर्हन्त परमात्मा में कवलाहार करने पर भी सर्वज्ञता का अभाव नहीं आता है, क्योंकि इन दोनों में परस्पर में कोई विरोध नहीं है । सर्वज्ञता भी रह सकती है और भोजन करना भी रह सकता है। यदि कवलाहार का सर्वज्ञता के साथ विरोध माना जाने तो फिर हमारे ज्ञान के साथ भी कवलाहार का विरोध होना चाहिये । अन्धकार का और प्रकाश का जब आपस में विरोध है तो जिम प्रकार उसे सूर्यप्रभा विनष्ट कर देती है तो इसी तरह उसे प्रदीपप्रभा भी नष्ट कर देती है । अतः पय-पानी और पाबक का जैसा परस्पर में विरोध है बसा विरोध कवलाहार और केवलज्ञान का नहीं है। यदि आपस में इनका विरोध अपनी हठ से स्वीकार किया जाये तो फिर ज्ञानवान होने से हम लोगों को भी कवलाहार की अपेक्षा नहीं होनी चाहिये । अतः तर्क के बल पर यही निष्कर्ष निकलता है कि अर्हन्त परमात्मा में केवलज्ञान प्रकट हो जाने पर भी भोजन करने का अभाव प्रमाणित नहीं होता है ।। १८ ॥
।। द्वितीय अध्याय समाप्त ।