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म्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : द्वितीय अध्याय, सूत्र १६
[३५ होने के कारण संभक्ति होता है । परमात्मा अर्हन्त में सर्वज्ञत्वरूप हेतु असिद्ध इसलिए नहीं है कि वे रागद्वेष एवं अज्ञानरूप दोषों से रहित हैं । ये दोनों ही हेतु केवलव्यतिरेकी हेतु हैं और अपने-अपने साध्य की सिद्धि करने में समर्थ हैं । अतः हमें चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है । जहाँ पर सर्वज्ञता है वहीं पर केवलज्ञानयुक्तता है, और जहाँ पर केवलज्ञानयुक्तता नहीं है वहां पर सर्वज्ञता भी नहीं है। जैसे-रथ्या पुरुष-गली में फिरने वाला पुरुष । अर्हन्त सर्वज्ञ हैं इसलिए वे केवलज्ञानी हैं । अर्हन्त में सर्वशता की मिलि मिर्दोषता से होती है । रोग समझना चाहिए।
प्रश्न-यहाँ अर्हन्त परमात्मा को पक्ष, केवलज्ञान को साध्य और सर्वज्ञत्व को हेतु बनाया गया है । क्योंकि साध्य की सिद्धि हेतु द्वारा ही की जाती है। परन्तु हेतु प्रसिद्ध होने के कारण ही तो अपने साध्य की सिद्धि करता है । यहाँ सर्वज्ञत्व जो हेतु दिया गया है वह अभी तक तो प्रसिद्ध ही नहीं है, फिर इस अप्रसिद्ध हेतु से साध्य की सिद्धि कैसे हो सकती है?
उत्तर-.-शङ्का उचित है । परन्तु जब इस पर विचार किया जाता है तो समाधान भी इसका अच्छी तरह से मिल जाता है। मानाकि सर्वज्ञत्व अभी तक अप्रसिद्ध है परन्तु युक्ति के बल पर इसकी भी सिद्धि हो जाती है, और वह युक्ति ऐसी है त्रि संसार में जितने भी सूक्ष्म-परमाणु आदि, अन्तरित राम-रावणादि और दूगर्थ सुमेम्पर्वत आदि पदार्थ हैं, वे सब अनुमेय होने से किसी न किसी के प्रत्यक्ष हैं - प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय हैं । जैसे अग्नि अनुमेय होने से किसी न किसी के प्रत्यक्ष होनी है, इस अनुमेयत्व हेतु की व्याप्ति प्रत्यक्ष के साथ अन्यादि में देखी जाती है । “यत्र-यत्र अनुमेयत्वं तत्र-तत्र क.स्यचित्प्रत्यक्षत्वं यथा अग्न्यादि'' इसी तरह से सूक्ष्मादिक पदार्थ भी अनुमेय हैं अतः वे भी किसी न किसी के प्रत्यक्ष ज्ञान के विषयभूत हैं । अर्हन्त परमात्मा में सर्वज्ञता की सिद्धि उनके निर्दोष होने के कारण होती है । इस सम्बन्ध में "अहं न सर्वज्ञः निर्दोषत्वात्" अनुमान प्रकार ऐसा है ।।१५।।
सूत्र-प्रमाणाविरोधिवाक्त्वात्तव निर्दोषत्वम् ।।१६।।
संस्कृत टीका-भगवतोह तो दोषरहितत्वरूपहेतुना केवलज्ञानाश्रयत्वं सर्वज्ञत्वं साधितं, परन्तु यदि कश्चित्स्वदर्शनानुरागवणात्त एवं ब्रूयात् अयं हेतुः स्वरूपासिद्धि दोषग्रस्तत्वात्कथं तत्र तत्साधयितुमीशः, अत आह-प्रमाणाविरोधिवाकवादित्यादि, तथा च तीर्थकृदहन राग पाज्ञानदोषनिमुक्तः प्रमाणाविरोधिवचनत्वात्, इत्यनुमानेन अर्हतो दोषरहितत्वसिद्धः हेतौ स्वरूपासिद्धिदोषोद्भावने प्रलापमात्र मेव, तस्य सर्त तुत्वात् ।
सूत्रार्थ-प्रमाण से विरोधरहित वचन वाले होने से अर्हन्त परमात्मा निर्दोष है ।।१६।।
हिन्दी व्याख्या-यह पहले स्पष्ट कर दिया गया है कि दोषरहित होने से अर्हन्त परमात्मा केबलज्ञान के आश्रयभूत सर्वशता से युक्त हैं। परन्तु यदि कोई स्वदर्शन के अनुगग के वश से यदि इस निर्दोषरूप हेतु को स्वरूपतः असिद्ध वहाँ प्रकट करें तो इसके वारण निमित्त सूत्रकार ने ऐसा कहा है कि उनके जो वचन हैं-आगमरूप उपदेश है उनमें किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती है । दोपविशिष्ट व्यक्ति के ही वचनों में पूर्वापर विरोध रूप बाधा आती है। अतः निदोषत्वरूप हेतु स्वरूपासिद्ध नहीं है किन्तु स तु ही है।
१. सुक्ष्मान्लरिनदूरार्धाः गदार्थाः कस्यचिद् यथा अनुमेयत्वोदग्न्यादिरित सर्वज्ञ संस्थितिः ।