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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : द्वितीय अध्याय, सूत्र १५
होकर जो रूप, रस, गन्त्र एवं स्पर्श गुण वाले पुद्गल द्रव्य को स्पष्ट जानता है, वह अवधिज्ञान है । यह अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्यधिक इस रूप से दो प्रकार का होता है । भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान देव और नारक पर्याय के जीवों को अपने-अपने भव में उत्पन होते हो हा जाता है । यहाँ पर इस अवधिज्ञान को प्राप्त करने के लिए मनुष्यादि पर्याय की तरह नपस्या करके अवधिज्ञानावरणकर्म कर antire नहीं किया जाता है, प्रत्युत जीव का उस भव में जन्म विशिष्ट हुआ, कि पक्षी को आकाश में उड़ने की तरह अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से यह ज्ञान वहाँ उसे प्राप्त हो जाता है। इसी कारण इसे भवप्रत्ययिक कहा है । उस गति में जन्म लेना इसी का नाम भव है, और यह भष ही जिस अवविज्ञान की उत्पत्ति में कारण पड़ता है वह भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहलाता है ।
प्रश्न – शास्त्र - आगम ग्रन्थों में तो ऐसा कहा गया है कि अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है फिर यहाँ अवधिज्ञान की उत्पत्ति भवप्रत्ययिक क्यों कही गई है ?
उत्तर - भवप्रत्यय अवधिज्ञान भी अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ही होता है। परन्तु इस क्षयोपशम का कारण यहाँ भन ही होता है. व्रत नियम आदि नहीं। जिस प्रकार पक्षियों को आकाश में उड़ने की शिक्षा नहीं लेनी पड़ती है, वे तो स्वभाव से ही उड़ने लगते हैं, क्योंकि यह उनका पर्यायगत धर्म है। इसी प्रकार भवप्रत्यय अवधिज्ञान भी होता है । इस तरह इस अवधिज्ञान की उत्पत्ति में भव ही प्रधान कारण पड़ता है। अतः यह भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहा गया है ।
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान का नाम ही क्षायोपशमिक अवधिज्ञान है । यह अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यगति के जीवों को होता है और व्रत नियमादि की आराधना से जायमान, अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता है । मन:पर्ययज्ञान वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से सहकृत मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता है, और यह चिन्तन व्यापृत संज्ञिपञ्चेन्द्रिय के मनोद्रव्य की पर्यायों को जानता है । केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है । यह ज्ञान समस्त वातियरूप आवरण कर्म के क्षय होते ही उत्पन्न होता है। यह रूपी द्रव्य और अरूपी द्रव्य को युगपत् उनकी अनन्त पर्यायों सहित जानता है । केवलज्ञान में सकलप्रत्यक्षता और अवधि - मनः पयज्ञान में विकलप्रत्यक्षता यह अपने-अपने विषय को ही लेकर है, वैशद्य को लेकर नहीं है । जितनी विशदता से केवलज्ञान अपने विषय को जानता है, उतनी ही विशदता से अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान भी अपने-अपने विषय को मूर्त (रूपी) पदार्थ को द्रव्य-क्ष त्रादि की मर्यादा लेकर जानते हैं ।। १४ ।।
सूत्र - सर्वज्ञस्यात् केवलज्ञानवानर्हक्षेत्र निर्दोषत्वात् स एव सर्वज्ञः ।। १५ ।।
संस्कृत टीका - प्ररूपित स्वरूपं सकलप्रत्यक्षरूपं केवलज्ञानम् अन्यत्र संभवदत्येव संभवति सर्वज्ञत्वात् । न च सर्वशत्वं तत्रासिद्ध निर्दोषत्वहेतुना तस्य तत्र सिद्धत्वात् । रागद्वेषाज्ञानलक्षणा दोषास्तेभ्यो निष्क्रान्तत्वं हि निर्दोषत्वं केवल व्यतिरेक्यय हेतु: स्वसाध्य साधनायालं कि नश्चिन्तया - यव तन थे, यथा रम्यापुरुषः, सर्वशश्चात् तस्मात्तत्र केवलज्ञानवत्वं सिद्धयति तदपि तत्र सर्वज्ञत्वं निर्दोषत्वात् इति विभावनीयम् ।
सूत्रार्थ - केवलज्ञान अर्हन्त परमात्मा में ही है क्योंकि वे सर्वज्ञ हैं तथा वे ही सर्वज्ञ हैं क्योंकि वे निर्दोष हैं।
हिन्दी व्याख्या - जिसका स्वरूप पहले प्रकट किया जा चुका है. ऐसा वह सकलप्रत्यक्षरूप केवलज्ञान अन्यत्र -- कपिल सुगतादि में नहीं संभवित होता हुआ केवल अर्हन्त परमात्मा में ही उनके सर्वश