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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : द्वितीय अध्याय, सूत्र १०-११-१२
महासत्ता माने तो जीवत्व अवान्तर सत्ता रूप होगा । और जब जीवत्व को महासत्ता मानेंगे, तो मनुष्यत्व अवान्तर सत्ता रूप होगा, इत्यादि । इस तरह दर्शन के बाद होने वाला अवान्तर सत्ताविशिष्ट वस्तु ग्रहण अवग्रह का लक्षण निर्दोष है ।
सूत्र-अवग्रह गृहोतार्थोद्भूत संशय निरासाय यत्न ईहा ।।१०।।
संस्कृत टीका-अवग्रहेण योडों यहीतो यथाऽयं पुरुष इति नत्र किमय "गुर्जरदेशीयः, उताहो महाराष्टियः" इत्येतं विशेष धर्मत्य कोटिक संशयानन्तरम् अनेन गुर्जरदेशीयेन भवितव्यमित्येवम् ईहारूप ज्ञानं जायते । तस्माद् ईहया संशये सति जायमानया संशयो निरस्यते-निर्णयाभिमुली प्रवृत्तिश्च जन्यते। ईहा यद्यपि चेष्टोच्यते तथापि चेतनस्य सेति कृत्वा ज्ञानरूपैवेत्ति युक्तं प्रत्यक्ष भेदल्बमस्याः।
न च वाच्यं पूर्ण निर्णयो नानया जन्यते कथमस्याः प्रमाणत्वमिति । स्व विषय निर्णय रूपत्वात् ॥१०॥
सूत्रार्थ-अवग्रह से गृहीत अर्थ में उद्भूत संशय को दूर करने के लिए जो निर्णयाभिमुखी प्रवृत्ति होती है, उसका नाम ईहा है ।
हिन्दी व्याख्या-जैसे यह पुरुष है । इस प्रकार का जो अवग्रह ज्ञान होता है, उस ज्ञान के अनन्नर क्या यह गुजरात का है, या महाराष्ट्र का है, इस प्रकार का उभयकोटि को स्पर्श करने वाला संशय होता है। इस संशय को दूर करने के लिये फिर ऐसी गवेषणा होती है कि यह गुजरात का होना चाहिए । यद्यपि इस ज्ञान में पूर्णरूप से निर्णय नहीं होता है । परन्तु फिर भी निर्णय की ओर ही इसका झुकाव है। यह ईहारूप चेष्टा चेतन की होती है, इसीलिए इसे ज्ञानरूप कहा गया है और इसे अपने विषय का इसी झप में निर्णय करने वाला होने से प्रमाणम्प माना गया है ।।१०।।
सूत्र-ईहर भावित विशेषावधारणमवायः ॥११।।
संस्कत टोका–अनेन गुर्जरदेशीयेन भवितव्यमित्येवं रूपेण जायमानया ईहया भावितोविषयीकृतो योऽर्थस्तस्य विशेषरूपेण अवधारणात्मकोऽवायो भवति यथाऽयं गुर्जरदेशीय एव ।
हिन्दी व्याख्या-ईहा के द्वारा विषयभूत हुए, अर्थ का विशेष रूप से निर्णय करने वाला जो ज्ञान है उसी का नाम अवाय है । जैसे---जब ईहा ने यह जाना कि यह मनुप्य गुजराती होना चाहिए। तब उसकी भाषा आदि सुनकर जो ऐसा निश्चय हो जाता है कि यह गुजराती है । इसी ज्ञान का नाम अवाय है।
सूत्र-कालान्तराविस्मरण हेतु र्धारणा ।।१२॥
संस्कृत टीका-पूर्वोक्त स्वरूपोज्याय एव यदा दृढ़तरावस्था युक्तो भवति तदा स आत्मनि एतादृशं संस्वारं जनयति येन कालान्तरेऽपि "सः' एवं रूपं स्मरणज्ञान जन्यते । स संस्कार एव धारणा. तदुक्तमन्यत्रापि धारणा स्मृतिहेतु रिति । एतेषां ज्ञानानामय मेबोत्पत्तिकमः, अभ्यस्त विषये यदेषामुत्पत्तिक्रमानुप लक्षणं तत् तत्र तेषामाशूत्पाद एव कारण "दर्शनस्योत्तपरिणामोऽवग्रहः, अस्योत्तरपरिणाम ईहा, अस्या उत्तरपरिणामोऽचायः, अस्योत्तर परिणामश्च धारणा' एवं रूपेणा' कथञ्चिदेकत्वं व्यपदेशभेदेन च काथञ्चिद्भिन्नत्वमार्यम् ॥१२॥
सूत्रार्थ-कालान्तर में जो स्मरण ज्ञान का हेतु होता है वही धारणा का स्वरूप है। धारणा के बिना जाने गये पदार्थ का स्मरण कथमपि नहीं हो सकता है ।।१२।।