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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : द्वितीय अध्याय, सूत्र ६
| २६ व्यञ्जन कहलाता है। क्योंकि जब तक स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र का विषय इन इन्द्रियों के साथ स्पृष्ट होता हुआ भी अव्यक्त रहता है तब तक वह व्यञ्जन कहलाता है, और इस व्यञ्जन पदार्थ केवल अवग्रह रूप ही ज्ञान होता है ईहादिरूप ज्ञान नहीं होता और यह व्यञ्जन का अवग्रहरूप ज्ञान अप्राप्यकारी होने के कारण चक्षु और मन से नहीं होता है । अतः यह बहु आदि १२ प्रकार के पदार्थों का व्यञ्जनावग्रह ४ ही इन्द्रियों से जन्य होने के कारण ४८ भेद वाला होता है। इस तरह अर्थावग्रह के २८८ और व्यञ्जनावग्रह के ४८ भेद मिलाने से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के ३३६ भेद हो जाते हैं।
प्रश्न--- ३३६ भेद तो सूत्र में काहे नहीं गये हैं फिर आपने इन्हें कैसे प्रकट किया है ?
उत्तर-~वाल तो ठीक है। यहाँ तो भूल रूप से सांब्यबहारिक प्रत्यक्ष के अवग्रहादि ४ भेद ही प्रकट किये गये हैं। परन्तु इन्हीं भार भेदों पर से ये ३३६ भेद फलित हुए हैं, सो यह सब विषय ऊपर में स्पष्ट ही कर दिया गया है। अतः आपको सन्तोष कर लेना चाहिये ।
प्रश्न-जिस प्रकार आपने अर्थावग्रह और व्यञ्जनाबग्रह ऐसे दो भेद अवग्रह के किये हैं तो क्या इसी प्रकार से 'अर्थहा एव व्यजनेहा' आदि रूप से भेद ईहा आदि ज्ञानों के भी होते हैं ?
उत्तर-ईहा आदि शानी के इस प्रकार स भद नही होते हैं। अवग्रह के ही ये भेद होते हैं। क्योंकि व्यञ्जन पदार्थ में अनग्रह के सिवाय ईहा आदि ज्ञान उद्भूत नहीं होते हैं ।
सूत्र-विषय-वियि सम्बन्धोद्भूत दर्शनानन्तरावान्तरसत्ताविशिष्टवस्तु ग्रहणमवग्रहः ।।६।।
संस्कृत टोका-पूर्वमूत्रनिर्दिष्टेषु अवग्रहादि चतुषु प्रथमोक्तम् अवग्रह लशयितु विषयविषयीत्यादि सूत्रमाह--तथा च विषयः सामान्य विशेषात्मको ज्ञेय पदार्थः, विषयी चक्ष रादीन्द्रियादि समूहः तयोः यः सम्बन्धः-योग्यता लक्षणः, नतु संयोगादि रूपः, तस्मिन् सति प्रथमम् उत्पन्नं यत् सन्मात्रदर्शनम्सत्तामात्र विषयं दर्शनम्-अस्ति कि स्विद् इत्येवं सन्मात्र विषयकं निराकार ज्ञानम्-तदनन्तरभावि यद अवान्तर मत्तया मनुष्यत्वादि जात्या विशिष्टस्य मनुष्यादेर्वस्तुनो ग्रहणं तद् अवग्रहः । सत्ता मात्र विषयक दर्शनमेव अव ग्रहरूपतया परिणमति ।।६।।
सूत्रार्थ-विषय और विषयी के योग्यता लक्षणरूप सम्बन्ध होने पर उत्पन्न हुए दर्शन के बाद जो अबान्तर सत्ताविशिष्ट वस्तु का ग्रहण होता है उसी का नाम अवग्रह है ।।।।
हिन्दी व्याख्या-पूर्वसूत्र में जो अवग्रहादि चार ज्ञान प्रकट किये गये हैं, उनमें सर्वप्रथम जो अवग्रह का पाठ आया है. उसके लक्षण के सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैं, कि-चक्षुरादि इन्द्रियों का अपनीअपनी योग्यता के अनुसार जो अपने विषयभूत ज्ञेय पदार्थों के साथ सम्बन्ध होता है, उस समय सर्वप्रथम केवल उस पदार्थ की सत्ता मात्र की ही प्रतीति होती है, इसी का नाम दर्शन है। इस दर्शन के बाद ही यह कुछ है-इस प्रकार के निराकार ज्ञान के बाद ही-अबान्तर सत्ताविशिष्ट मनुष्य आदि वस्तु का ग्रहण होता है-अर्थात् यह मनुष्य है.--ऐसा जो साकार ज्ञान होता है, उसी का नाम अवग्रह है। इस तरह दर्शन ही अवग्रह ज्ञान रूप से परिणम जाता है।
प्रश्न-अवान्तर सत्ता का अर्थ क्या है ? उत्तर-भिन्न-भिन्न पदार्थों की जो सत्ता है वही अवान्तर सत्ता है। जैसे-द्रव्यत्व को यदि हम
१. तदनन्तर भूतं सन्मात्र दर्शनं स्व विषय व्यवस्थापन विकल्पम् उत्तर परिणाम प्रतिपद्यने अवग्रहः ।
-न्याय कुमुदचन्द्र ११६ पृष्ठे ।