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न्यायाल : शायरत्तामा टीका :नि लगाय, न है। अतः इसमें यह विस्तृत चर्चा नहीं की है। केवल टीका की अन्तिम पंक्ति से इसकी सूचना ही दी गयी है।
प्राणरसनचक्षुस्त्वक श्रोत्रागोनियाणि भूतेभ्यः-ज्यायसूत्र १/१/१२ ॥
पृथिव्यप्तेजोवायूनां नागरसमवणः स्पर्शनेन्द्रिपभावः ।। नाणेद्रिय की उत्पत्ति पृथिवी से होती है, रसनेन्द्रिय की उत्पत्ति जल से होती है, चक्षुरिन्द्रिय की उत्पत्ति तेज से होती है, स्पर्शन्द्रिय की उत्पत्ति वायु से होती है, श्रोत्रेन्द्रिय की उत्पत्ति आकाश से होती है ऐसी इनकी मान्यता है।
प्रकृतेमहान ततोहारस्तस्मागणश्चयोडशका, तस्मादपि षोडशकास्पञ्चभ्यः पन्च भूतामि। अभिमामीहङ्कारस्तस्माद् द्विविधिः प्रवर्तते सर्गः, ऐन्द्रिय एकादशकः तन्मात्रा पञ्चकश्चैव ।। - इति सांख्यकारिका ।
अहङ्कार रूप अभिमान से सोलह गण का आविर्भाव होता है । सोलह गण इस प्रकार से हैं, ५ भूत, ५ इन्द्रिय, ५ तन्मात्रा और १ मन | इस कथन के अनुसार सांख्य के यहाँ पर इन्द्रियों का आविर्भाव अहङ्कार मे हुआ माना गया है ।।७।।
सूत्र-द्विविधपि सांव्यवहारिक प्रत्यक्षम् अवग्रहेहावायधारणा मेवात् चतुःप्रकारकम् ॥६॥
संस्कृत कोका-न्द्रियजानिन्द्रियजभेदात्सांव्यवहारिक प्रत्यक्षं द्विविधमिति प्रतिपादितम् । तदेव प्रत्येकम् अवहेलावायधारणाभेदात् चतुर्विधमस्तीति प्रतिपाद्यतेऽनेन सूत्रेण । तथाचेन्द्रियनिबन्धनं सांव्यवहारिकम् अनिन्द्रियनिबन्धनं च सांव्यवहारिक प्रत्यक्षम् । अवग्रहादिभेदात् चतुर्भेदविशिष्टं ज्ञातव्यम् । एतेऽवग्रहादयो बबादि पदार्थविषयका भवन्ति ||||
नार्थ-दोनों प्रकार का सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से चार-चार प्रकार का है।
हिन्दी व्याख्या-मांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के एक इन्द्रियज सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और दूसरा अनिन्द्रियज सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इस प्रकार से दो भेद प्रकट किये गये हैं। उनमें इन्द्रियज सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष चार प्रकार का है, और अनिन्द्रियज सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी चार प्रकार का है। जैसे किसी पदार्थ का व्यक्त पदार्थ का हर एक इन्द्रिय एवं मन से अवग्रहरूप भी ज्ञान होता है, ईहारूप भी ज्ञान होता है, अवायरूप भी ज्ञान होता है, और धारणारूप भी ज्ञान होता है। इसी तरह से केवल मन के विषयभूत बने हुए पदार्थ में भी अवग्रहादि रूप ज्ञान होता है । अवग्रहादि के विषयभुत पदार्थ बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिसृत, अनुक्त, ध्रुव, एक, एकविध, अक्षिप्र, निसृत, उक्त और अध्रुव के भेद से १२ प्रकार के होते हैं। ऐसा नियम है कि अबग्रह के विषयभूत बने हए पदार्थ में ही ईहा, अबाय और धारणा रूप ज्ञान होते हैं और ये अब ग्रहादि रूप चारों प्रकार के ज्ञान उन ब्रह्मादि पदार्थों में पाँच इन्द्रिय
और मन से होते हैं। इस तरह से मतिज्ञान के २८८ भेद हो जाते हैं। इनमें व्यञ्जनावग्रह के ४८ भेद सम्मिलित नहीं हैं।
प्रश्न-व्यञ्जनावग्रह का क्या मतलब है?
उत्तर-इन बहु आदि पदार्थों में जब अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों ज्ञान प्रवृत्त होते हैं तब ये बहु आदि पदार्थ "अर्थ" कहलाते हैं, और जिनमें केवल अवग्रह ही ज्ञान होता है वह
१. इनभेदों का अर्थ जानने के लिये अन्यत्र देखो।