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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : प्रथम अध्याय, सूत्र११-१२
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शान में स्व-पर-व्यवसायत्व का समर्थन
सूत्र-झानस्य स्वपरावभासकत्वमेव स्वपर-व्यवसायः ।।११।।
संस्कृत टीका-जाने का स्वपर-व्यवसायतास्तीति शङ्का निरसितुं सूत्रकारम्लां स्पष्टयतिस्वं ज्ञानं परः ज्ञेयार्थः तयोरवभासकत्वम्-प्रकाशनम- अनुभवविषयीकरणमेव स्वप व्यवसायः, यथा रविकिरणः स्वतः प्रकाशशीलत्वात् स्वं प्रकाशयति बाह्य घट-पटादि पदार्थानपि प्रकाशयति । एवमेव ज्ञानमपि "घटमहमात्मना वेनि" इत्याकारक बोधे घटवत् ज्ञानमपि भासते ।
सूत्रार्थ-ज्ञान में स्वपर की अवभासकता ही स्वपर व्यवसाय है ।
हिन्दी व्याख्या-जान जब अपनी ओर उन्मुख होता है नब वह अपने को जानता है। यही ज्ञान में स्वव्यवसाय है और जब वह पदार्थ की ओर उन्मुख होता है तब बह पदार्थ को जानता है यही परव्यवसाय है । इस तरह से रविकिरण की तरह ज्ञान में स्वपर-प्रकाशकता है। ज्ञान आत्मा का एक प्रकाश रूप गुण है अतः वह सूर्यकिरण की तरह स्वयं को भी प्रकाशित करता है, और घट-पटादि पदार्थों को भी प्रकाशित करता है । सूर्यकिरणों को जानने के लिये लोक में दूसरे प्रकाणशील पदार्थों की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि वे स्वयं प्रकाशशील हैं। इसी तरह अव "घटमहमात्मना वेनि" मैं मा से घट को जानता है, ऐसी प्रतीति होती है तब घट की तरह इस प्रतीति में ज्ञान की भी प्रतीति होती है। इस तरह से सूत्रकार ने ज्ञान में स्व-पर व्यवसायता का समर्थन किया है। ऐसा जानना चाहिये ।।११।। ज्ञान में प्रमाणता का कथन
सूत्र--प्रतिमातविषयाव्यभिचारित्वं प्रामाण्यम् ।।१२।।
सूत्रार्य-प्रमेय पदार्थ जैसा है उसे उसी रूप से जानना यही प्रतिभातविषयाव्यभिचारित्व है, यही ज्ञान में प्रमाणता है।
संस्कृत टोका-ज्ञानं प्रमाणमिति यदुक्त तत्र प्रामाण्यं किमिति जिज्ञासायां प्रतिभातविषयाव्यभिचारित्व प्रामाण्यमाह-एवं च-अन्यूनमननिरिक्तम् अविपर्ययं निस्संदेहं पदार्थस्य वेदनमेव प्रामाण्यम् इदमेव च प्रतिभातविषयाव्यभिचारित्वमस्ति । एवञ्च यज्ज्ञानं कदाचिदपि प्रमेयं न व्यभिचरति तदेव ज्ञान प्रमाणम्पं भवति । अर्थात् येन प्रत्यक्षादिना ज्ञानेन यद्वस्तु येन स्वरूपेणोपगतं ज्ञातं भवति तद्वस्तु यदि तेनैव स्वरूपेण उपगतम् उपलब्धं भवति, तदा तज्ज्ञानं प्रमाणं भवति यथा सत्य रजतादि जानम् । एतभिन्नस्वरूपमप्रामाण्यम् ॥१२॥
हिन्दी व्याख्या-ज्ञान के द्वारा विषय किया गया प्रमेय जैसा ज्ञान ने जाना है यदि उसी रूप से उपलब्ध होता है, न कमती होता है, न बढ़ती होता है, न विपरीतता से युक्त होता है। किसी भी प्रकार का जिसमें सन्देह नहीं रहता है। तो ऐसा ही ज्ञान प्रमाण माना गया है । परन्तु यहाँ पर जो "प्रतिभात विषयाव्यभिचारित्वं प्रामाण्यम्" ऐसा कहा गया है वह व्यावहारिक दृष्टि को लेकर कहा गया है। यदि ज्ञान ने जिस पदार्थ को जिस रूप से अपना विषय बनाया है वह पदार्थ उत्तरकाल में यदि उसी तरह से उपलब्ध होता है, तो वह ज्ञान प्रमाण माना जाता है । ज्ञान ने जिस पड़ी हुई काली पतली रस्सी को दूर से देखकर सर्प जाना है और उत्तरकाल में यदि सर्परूप से उपलब्ध नहीं होती है तो बह ज्ञान प्रमाण नहीं माना जाता है क्योंकि ऐसा वह ज्ञान प्रतिभान विषय के द्वारा अव्यभिचारी नहीं हुआ है प्रत्युन व्यभिचारी न्या० टी०.३