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न्याय रत्नसार : चतुर्थ अध्याय व्याख्या- प्रत्येक बस्तु अनन्त धर्मात्मक है । एक शब्द द्वारा एक साथ उनका कथन वक्ता नहीं कर सकता है । अत: बह उन्न धर्मों में से किसी एक धर्म को अपनी विवक्षा से प्रधान कर लेता है और उसका प्रतिपादन उस शब्द द्वारा करता है । कहीं वह विधि को मुख्य करता है, और उसका कथन करता है, कहीं बह निषेध को मुख्य करता है और उसका कथन करता है। कहीं वह विधि-निषेध दोनों को मुख्य करता है और उसका कथन करता है । कहीं क्रमशः दोनों को मुख्य करता है, कहीं युगपत् दोनों को मुख्य करता है, कहीं विधि को और युगमत् दोनों को, कहीं निषेध को और युगपत् दोनों को और कहीं क्रमशः और युगपत् दोनों को मुख्य करता है और उनका कथन करता है-इस प्रकार के कथन में विवक्षा के भेद से किसी प्रकार का विरोध नहीं आता है। क्योंकि प्रत्येक धर्म के कथन के साथ स्यात् पद का वह प्रयोग करता है । इस प्रकार से सात प्रकार के वचन प्रयोग को लेकर सप्तभङ्गी बन जाती है । स्यात्पद का अर्थ स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्व-भाव की अपेक्षा होता है ॥१०॥ प्रथमादि भंगों की उत्पत्ति का क्रम कथन, प्रथम भंग :
सूत्र--स्यात्सदेव सर्वमिति प्राधान्येन विधिविवक्षया प्रथभोमङ्गः ।। ११ ।।
अर्थ-किसी अपेक्षा से समरत जीवादिक वस्तु सत्स्वरूप ही है। इस प्रकार का यह प्रधान रूप से विधि की विवक्षा करके समस्त वस्तु में अस्तित्व का कथन करने वाला प्रथम भङ्ग है।
व्याख्या-- 'स्यान्' यह तिङन्न प्रतिस्पक अव्यय है । यह अनेकान्त का बोधक है । इससे यह समझाया जाता है कि समस्त वस्तु स्यात्-कञ्चित्-स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा--सत्स्वरूप ही है।॥ ११॥
सूत्र--द्वितीय भंग-स्थादसवेव समिति प्राधान्येन निषेधविवक्षया द्वितीयो भंगः ॥ १२ ॥
व्याख्या किसी अपेक्षा से जीवादिक वस्तु असत्स्वरूप ही है ऐसा प्रधान रूप से असत्त्व धर्म की विबक्षा करके समस्त बस्तु में नास्तित्व-असत्त्व का कथन करने वाला द्वितीय भंग है। यहाँ ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये कि शीत और उष्ण की तरह अस्तित्व और नास्तित्व में विरोध है तो फिर इनका एक ही समय में एक वस्तु में एक साथ रहना कैसे संभव हो सकता है। क्योंकि शीत उष्ण के जैसा अस्तित्व नास्तित्व में विरोध नहीं हो सकता । विरोध तो तभी कहा जा सकता है कि जब एक ही काल में एक ही स्थान में ये दोनों धर्म एकत्रित होकर न रहें । लेकिन स्वचतुरटय की अपेक्षा अस्तित्व और परचतुष्टय की अपेक्षा नास्तित्व तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से एक ही वस्तु में युगपत् सिद्ध है-फिर विरोध कैसा? किन दो धर्मों में विरोध है यह बात हम पहिले से नहीं जान सकते । जब हमें यह बात ज्ञात हो जाती है कि ये धर्म एक ही समय में एक ही जगह नहीं रह सकते तब हम उनमें विरोध मानते हैं। अगर वे एकत्रित होकर रह सकें तो विरोध कैसे कहा जा सकता है ? यदि ऐसा कहा जाता कि स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्तित्व है और स्वचतुष्टय की ही अपेक्षा नास्तित्व है तो विरोध कहना ठीक है। लेकिन अपेक्षाभेद से दोनों में विरोध नहीं कहा जा सकता ।। १२ ॥
सूत्र-तृतीयमंग–स्यात्सदेव स्वासदेवेनि क्रमशो विधि-निषेध विवक्षया तृतीयोभंगः ।। १३ ।।
अर्थ-कथंचित् समस्त पदार्थ सत्स्वरूप ही हैं और कथञ्चित् सर्व पदार्थ असत्स्वरूप ही हैं इस प्रकार कम से विधि और निषेध की कल्पना से तीसग भंग होता है।