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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : प्रथम अध्याय, सूत्र ८-६ हिन्दी व्याख्या-एक वस्तु में अनिपित्तन विरुद्ध अनेक कोटियों को विषय करने वाला ज्ञान संशय है। जैसे यह स्थान है या पुरुष है ? इस प्रकार का जो शान होता है, वह संशय कहलाता है ! इस सुत्र द्वारा यही संशय का लक्षण समझाया गया है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है, कि संशयज्ञान वहीं पर होता है, कि जहाँ एकधर्मी में सामान्य धर्म का तो प्रत्यक्ष होता है, और सद्गत विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष नहीं होता है। जैसे किसी मनुष्य ने बहुत दूर से स्थाण जैसी वस्तु को देखा । अब वह विचार करता है, कि यह स्थाणु है, या पुरुष है। ऐसा संशय ज्ञान उसे इसलिये हुआ है, कि दूरत्व आदि दोष के वश से उसे स्थाणुगत और मनुष्यगत जो ऊँचाई आदि सामान्य धर्म हैं, उनका तो उसे प्रत्यक्ष हो रहा है, और वक्रकोटर शिर-पाणि आदि जो विशेष धर्म हैं, उनका उसे प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हो रहा है। अतः उभयगत साधारण धर्मों की प्रत्यक्षता से और विशेष धर्मों की अप्रत्यक्षता से साधक प्रमाणों के अभाव के कारण उसे ऐसा विचार आता है, कि क्या यह पुरुष है बा स्थाणु है। यहाँ स्थाण से विरुद्ध पुरुष और पुरुष से विरद्ध स्थाणु है। इन विरुद्ध अनिश्चित अनेक कोटियों को उसका यह शान कि यह पुरुष है या स्थाणु है, स्पर्श कर रहा है । इसीलिये यह संशय रूप ज्ञान हुआ है। इस तरह उभयकोटिगत साधारण धर्म का दर्शन और विशेष धर्म था अदर्शन संशय को जन्म देता है, उत्पन्न करता है तथा विशेष धर्म का दर्शन संशय का निवर्तक होता है ।।७।।
सूत्र-असस्मिंस्तदवगाहि ज्ञान विपर्ययः ।।८।।
संस्कृत टीका-तदभाववति तत्प्रकारकं ज्ञानं विपर्यय इत्युच्यते यथा-शुक्तिकायामिदं रजतमिति ..नम् । सादृश्यादि निमित्तवशाच्छुक्ति विपरीत रजत निश्चयो विपर्यय ज्ञानस्वरूप एव ।
हिन्दी व्याख्या-जो पदार्थ जैसा नहीं है उसे उस प्रकार का जानने वाला ज्ञान विपर्यय ज्ञान कहा गया है। जैसे सीप में चांदी का ज्ञान । है तो सीप पर उसे सीप न समझकर यह चाँदी है-ऐसा होने वाला ज्ञान ही विपर्यय ज्ञान कहलाता है। संशय में और इस ज्ञान में यही अन्तर है कि संशयज्ञान में वि.सी का भी निश्चित ज्ञान नहीं होता है, वह बेदी के (बिना पेंदी के) लोटे की तरह (लोटे के समान) विरुद्ध अनेक कोटियों की ओर अवगाहित होता रहता है, जबकि यह ज्ञान ऐसा नहीं होता है। यह एक कोटि का निश्चय करने वाला होता है। परन्तु जिस कोटि को यह निश्चित करता है वह कोटि उसकी उल्टी होती है। जो है उसे यह निश्चित नहीं कर पाता और जो नहीं है, उसे वह वहाँ निश्चित कर लेता है। यही उसमें "अतस्मिंस्तदवगा हिता" है। इस ज्ञान में यह अतस्मिन् तदवाहिता रूप विपरीतता किस कारण से होती है ? तो इसका उत्तर यही है कि यह सादृश्य आदि निमित्त के वश से होती है। शुक्तिका भी सफेद होती है, और चाँदी भी सफेद होती है। अतः देखने वाला उस निमित्त को लेकर शुक्तिका को चाँदी समझ लेता है, और उसी का उसमें निश्चय कर लेता है। इसी प्रकार से रस्सी में जायमान सर्पज्ञान और मरुमरीचिका (मृगतष्णिका) में जायमान जलज्ञान भी विपरीत ज्ञान ही हैं। ऐसा जानना चाहिये ॥८॥
सूत्र--विशेषाध्यबसायविहीनं शानमनध्यवसायः ।।६।।
संस्कृत टीका-विशेषाग्राहि किमित्यालोचनात्मकं ज्ञानम् अनध्यवसायरूपं भवति, तथा च विशेषाग्राहि-वस्तुनो विशेषांशाग्राहक किमित्यालोचनात्मकम् "अस्ति कि स्विट्" इत्येवं रूपं सामान्यत आकलनात्मकं ज्ञानं सामान्यमात्रग्राहकतयाऽनध्ययसायरूपं दर्शनमुच्यते । एतदेव निर्विकल्पक ज्ञानम