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न्यायरत्नसार: षष्ठ अध्याय
|६९ सूत्र-प्रथमः शिष्यादिद्वितीयः क्षायोपशामिक क्षायिक ज्ञानवान् गुर्वादिः ॥३६॥
ध्याख्या--जो स्वात्म में तत्त्व निर्णय होने का अभिलाषी होता है वह शिष्यादि रूप होता है और जो परात्मा में तत्त्व निर्णय होने का अभिलाषी होता है वह गुरु आदि रूप होता है । यह दो प्रकार का होता है--एक क्षायोपशमिक ज्ञानशाली गुरु और दूसरा क्षायिक ज्ञानशाली मुरु आदि। यह प्रथम आदि शब्द से शिष्य के सहाध्यायी सुहृद्वर्ग का और द्वितीय आदि पद से आचार्य, उपाध्याय, गणी एवं तीर्थकर आदि का ग्रहण हुआ है । स्वात्मा में तत्त्वनिर्णयेच्छ के भेद नहीं होते हैं ॥३६॥ विजिगीषुकथांग :
सूत्र-विजिगीषु फयाख्यो वादो वादि-प्रतिवादि-सभ्य-सभापति पतुरंगोपेतोऽपरः कदाचित्रिव्यझोपेतश्च ॥३७॥
न्यायरत्नाभिधो ग्रंथरच समाप्तः ।। व्याख्या-विजिगीषुकथारूप वाद के वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति ऐसे चार अंग होते हैं। तथा वीतरागकथारूप वाद कदाचित् दो अंगोंवाला और कदाचित् तीन अंगोंवाला होता है । जब जय-पराजय की भावना से प्रेरित हुए दोनों का-बादी प्रतिवादी का परस्पर में शास्त्रार्थ होता हैअपने-अपने स्वीकृत धर्म की स्थापना के निमित्ति, तब उसमें चारों ही सभ्य सभापति आदि रूप अंगों की आवश्यकता होती है। एक भी अंग की हीनता में जय-पराजय की व्यवस्था सुघटित नहीं हो सकती है। तथा वीतरागकथारूप जो बाद होता है वह तत्त्वनिर्णय की अभिलाषा से होता है। उसमें जय-पराजय की भावना नहीं होती है अतः मुख्य रूप से उसे वाद नहीं माना जा सकता है। इसमें अंगों की व्यवस्था के निमित्त जो कहा गया है-वह इसकी न्याय रत्नावली टीका से जान लेना चाहिये ।।३७।।
॥छठवां अध्याय समाप्त ।। ॥ न्यायरत्नसार ग्रन्थ समाप्त ।।