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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : प्रथम अध्याय, मंगलाचरण
इस प्रकार के दोनों प्रयोजनों से विहीन होने के कारण यह शास्त्र अभिमत और शक्यानुष्ठान रूप प्रयोजन वाला है । जो शास्त्र ऐसे अभिमतादि प्रयोजन से युक्त होता है, और सम्बन्ध वाला होता है श्रोताजन की प्रवृत्ति उसी शास्त्र में होती है। अनभिमत प्रयोजन वाले या अशक्यानुष्ठान प्रयोजन वाले तथा सम्बन्ध विहीन शास्त्र में श्रोताजन की प्रवृत्ति नहीं हुआ करती है। यही बात "सिद्धार्थ सिद्ध सम्बन्धम्" आदि श्लोकार्ध द्वारा प्रकट की गई है ? व्याकरण, काव्यादि जिसने पढ़ लिये हैं, और न्यायशास्त्र कथित पदार्थों के स्वरूप का जो जिज्ञासु है ऐसा विनेय जन ही इस ग्रन्य का अध्ययन करने का अधिकारी है । जीव अजीव आदि रूप प्रमेय पदार्थों का स्वरूप प्रतिपादन करना यह इस ग्रन्थ का विषय है। विषय का और इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य-प्रतिपादकरूप सम्बन्ध है । अथवा-बोध्यबोधकभावरूप भी सम्बन्ध है, प्रमाण आदि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान इससे प्राप्त करना यह विनेयगत प्रयोजन है। इस प्रकार से ये चार अनुबन्ध इस ग्रन्थ में है ऐसा जानना चाहिये ।