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न्यायरत्न: प्यायरत्नावली टीका : प्रथम अध्याय, सूच२ के लिये जिस प्रकार से ज्ञान व्याप्त होता है, उसी प्रकार अपने स्वरूप को जानने के लिये वह अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं रखता है। नैयायिकों की ऐसी मान्यता है कि ज्ञान अपने आपको जानने के लिये पागला की लापेक्षा रहा है तामह स्वधनमाथि नहीं है। मीमांसकों का ऐसा कहना है किशान सर्बदा परोक्ष ही है, वह किसी अन्य ज्ञानान्तर से भी नहीं जाना जाता है। सांख्यों या ऐसा कहना है कि अचेतन इन्द्रियाँ और अन्तःकरणादिक ये सब ज्ञानरूप ही हैं। सो इन सत्र मान्यताओं को हटाने के लिये यहाँ स्व-पद का प्रयोग किया गया है। पर-पद ने शामादतवादी वेदान्तियों की मान्यता को एवं शून्यवादी माध्यमिकों की मान्यता को हटाया है । तथा प्रमाण के इस सम्पूर्ण लक्षण ने "अर्थोपलब्धिः प्रमाण" इत्यादि रूप से मान्य किये गये अन्य सिद्धान्तकारों के प्रमाण लक्षणों को हटाया है, प्रमाण के बिना कोई भी वस्तु उपादेय नहीं होती है इसलिये प्रस्तुत न्याय पदार्थ उपादेय हो सके इस कारण पहले प्रमाण के लक्षण का क्थन करके अब सूत्रकार क्रमशः विवक्षित न्याय विषय का प्रतिपादन आगे यथास्थान करेंगे । ज्ञान ही प्रमाण क्यों है---इसका समर्थन :
सूत्र-इष्टानिष्ट वस्तूपादान हालक्षमत्वाज्ञानमेव प्रमाणम् ॥२॥
संस्कृत टीका-जानमेव प्रमाणं कथं भवतीति युक्त्या समर्थयमानः सूरिरिष्टानिष्टेत्यादि सूत्र प्रतिपादयति--इष्ट-सुखं तत्साधनं च तद्र पं वस्तु, ज्ञानमेव उपादत्त अनिष्टं सादिवस्तु जहानि च । नतु घट पटादि वत्, संयोग सत्रिकर्षादिः तस्य जडत्वात् । चेतनस्यात्मनः धर्मत्वात् ज्ञानमेव तत्र समर्थ भवति, लौकिशे परीक्षको बा जनः ज्ञानेन हितं हितसाधकं च वस्तु ज्ञात्वा तद् गृह्णाति, अहितम् अहितसाधकं न ज्ञात्वा तत परित्यजति. ज्ञानस्यैव हेयोपादेय क्रियायां साधकतमत्वात् । सन्निकर्षादेः साधकस्य तत्र छिदि झियायां देवदत्तादिवत् साक्षात् समर्थता नास्ति ॥२॥
हिन्दी व्याख्या-ज्ञान ही प्रमाण क्यों है, सन्निकर्षादि प्रमाण क्यों नहीं है ? इस नाम का सूत्र द्वारा समर्थन किया गया है-सुख और सुख के साधन, दुःख और दुःख के साधन यहाँ क्रमशः इष्ट और अनिष्ट पद से गृहीत हुए हैं। इष्ट की प्राप्ति कराने में और अनिष्ट के परिहार कराने में ज्ञान ही समर्थ होता है, सन्निकर्षादि नहीं होते हैं, इसलिये ज्ञान में ही प्रमाणता है सन्निवर्षादि में नहीं क्योंकि सन्निकर्षादि में जड़ होने से घट-पट आदि की तरह हित की प्राप्ति कराने में एवं अहित के परिहार कराने में समर्थता
ज्ञान में ही ऐसा सामर्थ्य है। क्योंकि वह चेतनरूप आत्मा का एक धर्म है। चाहे लौकिक जा हों चाहे परीक्षक जन हों वे सब ज्ञान द्वारा ही जानकर हित-इष्ट की प्राप्ति और अहित--अनिष्ट का परित्याग किया करते हैं। इस तरह यह जो हेयोपादेयरूप क्रिया होती है, उस क्रिया के प्रति साधकतमता ज्ञान में ही आती है, अज्ञानरूप सत्रिकर्ष आदि में नहीं । यदि साधक मात्र होने से सन्निकर्षादि में प्रमाणता मानी जावे तो छिदिक्रिया में साधक मात्र होने से देवदत्तादि को भी प्रमाणभूत मानना पड़ेगा।
परन्तु ऐसा नहीं माना गया है, क्योंकि वह छिदिक्रिया कुठार के द्वारा ही की जाती है, देवदत्त के द्वारा नहीं । देवदत्त तो उस कुठार को चलाने में ही साधक है। अतः छिदिक्रिया में साक्षात् साधकतमता कुठार में ही आती है देवदत्तादि में नहीं । इसी प्रकार से उपादेय और हेय पदार्थ की प्राप्ति और परिहार करना रूप जो क्रिया होती है उसके प्रति साक्षात साधकतमता ज्ञान में ही आती है, अचेतन जड रूप सन्निकर्षादि में नहीं। यहाँ ज्ञान पक्ष है "प्रमाण यह साध्य है" और "इष्टानिष्टवस्तूपादान हान क्षमत्वात्" यह हेतु है।