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न्यायरत्नसार : षष्ठ अध्याय संशयों की विनिवृत्तिरूप उत्तर सात प्रकार के ही होते है और इन सात प्रकार के उत्तरों का नाम ही सप्तभंग है । "स्यात्" पद का प्रयोग नय सप्तभंगी में भी होता है ।। २८ ॥ नय का फल :
सूत्र–नयस्य फलमपित्तस्मात्कथंचिभितमभिन्न खेति ॥ २६ ॥
व्याख्या-ना का भी तरतुगा गा पर्व विगत सजान की निवृत्ति रूप साक्षात् फल और उस सम्बन्ध में जायमान-हान-उपादान एवं उपेक्षा बुद्धिरूप परम्परा फल भी नय से किसी अपेक्षा भिन्न है और किसी अपेक्षा अभिन्न है, ऐसी व्यवस्था करना चाहिये । इस सम्बन्ध में जैसा कथन प्रमाण फल के प्रकरण में स्पष्ट किया गया है वैसा ही वह कथन नय फल के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये ।। २६ ।। प्रमाता का स्वरूप :
सूत्र-प्रत्यक्षादि प्रमाणसिद्धप्रमातर चैतन्यस्वरूपोज्ञानादि परिणामी का भोक्ता गृहीतशरीरपरिमाणः प्रतिशरीरभिन्नः पौद्गलिकावृष्टवान् कथंचिन्नित्य आत्मा ॥ ३०॥
व्याख्या---प्रमाण के द्वारा वस्तु को जानने वाला जो आत्मा है उसी का नाम प्रमाता है। यह प्रमाता प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है, चैतन्यस्वरूप वाला है. ज्ञानादिरूप परिणाम से युक्त है, द्रव्यकर्म एवं भाबकर्मों का कर्ता है, उनके फल का भोक्ता है । प्राप्त हुए शरीर के बराबर है। हर एक शरीर में भिन्नभिन्न है, पौद्गलिक ज्ञानावरणादिरूप अष्टबाला है और कथंचित् नित्य है। इन विशेषणों को सार्थकता इसकी बड़ी टीका न्यायरत्नावली से जान लेनी चाहिये ।। ३० ।। मुक्ति का स्वरूप :--
सूत्र-गृहीपुरुषस्त्रीनपुसकशरीरस्यात्मनः सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां कृत्स्नकर्मसयो माक्षः ॥ ३१ ।।
व्याख्या-पुरुष के शरीर या स्त्री के शरीर या नपुंसक के शरीर में वर्तमान उस जीव की जो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के द्वारा समस्त शुभाशुभरूप कर्मों का अत्यन्त क्षय हो जाना है वही मुक्ति है। इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा न्यायरत्नावली टीका से जान सकते हैं । सम्यग्ज्ञान के कहने से उसके सहचर सम्यग्दर्शन का और सम्यक्रिया के कहने से उसके सहचर सम्यक्तप का ग्रहण हो जाता है। यह सत्र स्त्री मक्ति को नहीं मानने वाले दिगम्बरों को समझाने के लिये एवं अकेले ज्ञान से या अकेली क्रिया से मुक्ति मानने वालों की हठयाहिता को दूर करने के लिये कहा गया है ॥ ३१ ॥ वाद-कथा के भेद :
सूत्र-शस्वनिर्णयेच्छुविजिगीषु कथाभेदात् कथा द्विविधा ॥ ३२ ॥
व्याल्या-कथा दो प्रकार की कही गई है-एक तत्त्वनिर्णयेच्छु की कथा और दूसरी विजिगीषु की कथा । इनमें जय-पराजय की भावना से विहीन गुरु-शिष्यों में, सहपाठियों में तथा अन्य तत्व जिज्ञासुजनों में जो तत्त्व निर्णयार्थ चर्चा की जाती है, वह वीतराग कथा कहलाती है-इस कथा में जय-पराजय के ऊपर बिलकुल लक्ष्य नहीं दिया जाता है किन्तु तत्त्व निर्णय पर ही लक्ष्य रहता है। कई लोगों ने वीतराग कथा को वाद कहा है और विजिगीषु कथा को जल्प और वितण्डा । विजिगीष कथा में तत्त्वनिर्णय तो गौण रहता है, केवल जय-पराजय का विचार मुख्य रहता है । यद्यपि जल्प और वितण्डा में