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न्यायरत्नसार: षष्ठ अध्याय
अभिप्राय है वह समभिरूढनयाभास है । समभिरूढनयाभास का यही मत है कि जिस प्रकार घट, पट, मठ, कट आदि शब्द भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक होते हैं क्योंकि वे भिन्न-भिन्न शब्द हैं, उसी प्रकार इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द भी भिन्न-भिन्न प्राब्द होने के कारण भिन्न-भिन्न अर्थ के ही वाचक हैं। इस तरह यह अभेद का निधक होता है। साभिनव आना मन्तव्य पुष्ट करता हुआ भी अभेद का निषेधक नहीं होता है ॥२३॥ एवंभुतनय :--
सूत्र-एवंभूतमयं स्ववाच्यस्वेन कक्षीकुर्वाणो विचारो होवंभूतः ॥२४॥
व्याख्या-शब्द की प्रवृत्ति की निमित्तभूत क्रिया से सहित हुआ ऐमा अर्थ "एवंभूत" इस शब्द का है । तथा च--जो वाच्यार्थ उस पाब्द की प्रवृत्ति की निमित्तभूत क्रिया से सहित हो रहा है तो ऐसा वाच्यार्थ-पदार्थ- ही उस शब्द का अर्थ होता है. ऐसी मान्यता वाला एवंभूननय है। एवंभूतनय वह दृष्टिकोण है जिसके अनुसार प्रत्येक शब्द भिन्याशब्द ही है। प्रत्येक शब्द से किसी न किमी क्रिया का अर्थ प्रकट होता है । ऐसी अवस्था में जिस शब्द से जिस क्रिया का भाव प्रकट होता हो उस त्रिन्या से युक्त पदार्थ को उसी समय उस शब्द से कहा जा सकता है, अन्य समय में उस क्रिया की अविद्यमानता में नहीं। इन्द्र जब इन्दनरूप-ऐश्वर्य मोगरूप क्रिया का भोक्ता हो रहा है तभी वह
। वह इन्द्र शब्द का वाच्य हो सकता है। उस समय वह पुरन्दर पद का वाच्य नहीं हो सकता है। पुरन्दर पद का वाच्य तो वह जब शत्रु नगर के विध्वंस करने रूप क्रिया में निरत हो रहा हो तभी हो सकता है। ऐसी मान्यता इस एवंभूतनय की है । ॥२४॥ एवंभूतनयाभास :
सूत्र--अनैवभूतं वस्तुसच्छब्द वाच्यतया निराकुर्वस्तुसदाभासः ॥२५॥
व्याख्या-शब्द की प्रवृत्ति की निमित्तभूत क्रिया से रहित उम पदार्थ को उस शब्द का वाच्य मानने का सर्वथा निषेध करने वाला जो अभिप्राय है, वह एवंभूतनयाभास है। एवंभूतनय अमुक क्रिया से युक्त पदार्थ को ही उस क्रियावाचक शब्द से कहता है किन्तु अपने से भिन्न दृष्टिकोण का निषेध नहीं करता है । परन्तु यह एवंभूतनयाभास उस क्रिया से अपरिणत पदार्थ को उस शब्द का वाच्य नहीं मानता है । यदि इन्द्र इन्दन क्रिया से अपरिणत है और फिर भी यदि वह इन्द्र शब्द के द्वारा वाच्य होता है तो इन्दन क्रिया से अपरिणत और भी प्राणी इन्द्र शब्द द्वारा वाच्य होना चाहिये । उन्हें भी इन्द्र कहना अनुचित नहीं होना चाहिये परन्तु ऐसा नहीं होता है । अतः इस प्रकार की अव्यवस्था को दूर करने के लिये यही मानना उचित है कि जो अर्थ उस शब्द की प्रवृत्ति की निमित्तभूत क्रिया से परिणत नहीं हो रहा है उसे उस शब्द का याच्यर्थ नहीं मानना चाहिये। ॥२।। अर्थनय और शब्दनय का विभाग :
सूत्र-एण्याद्याश्यत्वारोऽर्थनयाश्चर मेत्रयश्व शब्दनयाः ॥२६॥
व्याख्या-इन नैगमादि सात नयों में जो आदि के नंगम, संग्रह, व्यवहार और हजुसूत्र ये चार नय हैं वे अर्थनय हैं क्योंकि ये सीधे रूप में अपने-अपने अर्थ का, अपने-अपने विषयभूत पदार्थ का, प्रनिरादन करले हैं। इनमें शब्द के लिंग आदि के बदल जाने पर भी अर्थ में कोई अन्तर नहीं आता है इसलिये इन्हें