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न्यायरत्नसार : पंचम अध्याय लोक निराकृत साध्यधर्मविशेषण वाला पक्षाभास :
सूत्र-बयाऽनार्याऽऽर्यजनानाचरित्वात् पापयत् ।। २७ ।।
व्याख्या-जैसे कोई ऐसा कहे कि दया नहीं करनी चाहिये क्योंकि वह पाप की तरह आर्य पुरुषों द्वारा अनाचरणीय है सो इस प्रकार का कथन लोक व्यवहार से बाधित है। क्योंकि लोक व्यवहार में दया को आचरणीय कहा गया है । अतः दयारूप पक्ष में अनार्यपना लोक व्यवहार से बाधित होने के कारण यह प्रतिज्ञा लोक निराकृत साध्य धर्मविशेषणवाली है।। २७ ।। स्ववचन निगकृतसाध्यधर्म विशेषण वाला पक्षाभास :
सूत्र-तत्त्वमनित्यवक्त मशक्यस्यात् ।। २८ ॥
व्याख्या-यह पक्षाभास तब होता है कि जिसमें अपने ही सिद्धान्त का अपने कथन द्वारा व्याघात हो जावे । जैसे-जब सर्वथा अबक्तब्यौकान्तवादी ऐसा कहता है कि वस्तुतत्व शब्दों द्वारा प्रकाशित नहीं किया जा सकता है अतः वह अनिदेश्य है सो ऐसा उसका कथन स्वत्रचनबाधित होने के कारण स्वबचन निराकृत साध्यधर्मविशेषण पक्षाभासरूप है क्योंकि तत्व की अनिदेश्यता में "तत्त्वमनिर्देश्य" ऐमा शाब्दिक व्यवहार भी नहीं हो सकता है । नहीं तो अनिदेश्यः शब्द द्वारा निर्देश्य हो जाने के कारण सर्वथा अनिर्देश्य सिद्ध नहीं हो पाता है । इसी प्रकार भोजन करते समय यदि कोई ऐसा कहता है कि मैं मौन से भोजन करता हूँ तो उसका ऐसा कहना भी इसी पक्षाभास के अन्तर्गत समझना चाहिये || २८ ॥ हेत्वाभास
सूत्र- असिद्धविरुद्धानेकान्तिकभेदाद्धि हेत्वाभासास्त्रिविधाः ।। २६ ॥
व्याख्या-असिद्ध, विरुद्ध और अनैतिक के भेद से हेत्वाभास तीन प्रकार के कहे गये हैं। अनुमानाभास के प्रसङ्ग को लेकर पक्षाभास का कथन करके अब सुत्रकार हेत्वाभास का कथन करते हैं। जो साध्य के साथ अबिनाभाव सम्बन्ध वाला होता है उसका नाम हेतु है । यही हेतु का निर्दोष लक्षण है। दुस लक्षण से रहित हुआ जो हेतु के जैसा प्रतीत हो उसका नाम हेत्वाभाल है । हेत्वाभास पूर्वोक्त रूप से तीन प्रकार के होते हैं । हेतु में हेत्वाभासता तभी आती है कि जब उसकी अन्यथानुपपत्ति साध्य के साथ निश्चित नहीं होती। यह असिद्ध हेत्वाभास स्वरूपासिद्ध, आश्रया सिद्ध, अन्यतरासिद्ध, उभयासिद्ध और सिमित आदि के भेद से अनेक प्रकार का कहा गया है। जब कोई ऐसा करता है कि "शब्दोऽनिन्य चाक्ष षत्वात्" शब्द अनित्य है क्योंकि बह चक्ष, इन्द्रिय का विषय है। यहाँ पर चाक्ष षत्व हेतु गब्द में स्वरूप से नहीं रह सकने के कारण स्वरूपासिद्ध है क्योंकि शब्द थोत्रन्द्रिय का विषय होता है । आश्रयासिद्ध हेतु वहाँ होता है जहां उसका आश्रय किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है । जसे यदि कोई ऐसा कहता है कि "बन्ध्यास्तनन्धयोऽस्ति प्रमेयत्वात्" तो यहाँ पर प्रमेयत्व हेतु आश्रयासिद्ध है । अन्यतरासिद्ध हेतु वहाँ होता है कि जब वह वादी प्रतिबादी में किसी एक को असिद्ध होता है। जैसे जब कोई सांस्य के प्रति ऐसा कहता है कि "शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात्" शब्द अनित्य है क्योंकि वह किया जाता है-उत्पन्न होता है तो यहाँ पर कृतकत्व हेतु अन्यतरासिद्ध है क्योंकि सांख्य सिद्धान्त सत्कार्यबादी है अतः उसके सिद्धान्त में किसी की भी उत्पत्ति नहीं मानी गई है। उभयासिद्ध हेतु यहाँ पर होता है कि जब हेतु वादी प्रतिवादी दोनों को मान्य नहीं होता जैसे--यदि ऐसा कहा जाय कि शब्द अनित्य है क्योंकि वह स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होता है तो यहाँ पर हेतु वादी प्रतिवादी दोनों को असिद्ध है । संदिग्धा सिद्ध हेतु वहाँ होता है जहाँ हेतु के स्वरूप में संदेह होता है । जैसे कोई मुग्धबुद्धि वाला व्यक्ति जब शब्द मूर्धा में उठती हुई वाष्प